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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश
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(२२) भगवान का धर्मोपदेश अर्धमागधी (आधी मगध देश की और आधी अन्य देशों की मिश्रित) भाषा में होता है ।*
(२३) आर्य देश और अनार्य देश के मनुष्य, द्विपद (पक्षी), चतुष्पद (पशु) और छापद (सर्प आदि) सभी भगवान् की भाषा को समझ जाते हैं ।
(२४) भगवान् का दर्शन करते ही और उपदेश सुनते ही जाति-वैर (जैसे सिंह और बकरी का, कुत्ता और विल्ली का) तथा भवान्तर (पिछले जन्मों) का वैर शांत हो जाता है।
(२५) भगवान् का प्रभावपूर्ण और अतिशय सौम्य स्वरूप देखते ही अपने अपने मत का अभिमान रखने वाले अन्य दर्शनी वादी अभिमान को त्याग कर नम्र बन जाते हैं।
(२६) भगवान के पास वादी वाद करने के लिये आते तो हैं, किन्तु उत्तर देने में असमर्थ हो जाते हैं।
(२७) (भगवान् के चारों तरफ २५-२५ योजन तक) ईति-भीति अर्थात् टिड्डी और मूषकों आदि का उपद्रव नहीं होता।
(२८) महामारी हैजा आदि का उपद्रव नहीं होता। (२६) स्वदेश के राजा का और सेना का उपद्रव नहीं होता । (३०) परदेश के राजा का और सेना का उपद्रव नहीं होता। (३१) अतिवृष्टि अर्थात् बहुत अधिक वर्षा नहीं होती। (३२) अनावृष्टि (कम वर्षा या वर्षा का अभाव ) नहीं होती। (३३) दुर्भिक्ष-दुष्काल नहीं पड़ता।
(३४) जिस देश में पहले से ईति-भीति, महामारी, स्व-परचक्र का भय आदि उपद्रव हो, वहाँ भगवान् का पदार्पण होते ही तत्काल उपद्रव दूर हो जाते हैं।
इन चौंतीस अतिशयों में से ४ अतिशय जन्म के होते हैं, १५ केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् होते हैं और १५ देवों के किये हुए होते हैं।
. * भगवं च ण अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खति । -उववाई सूत्र