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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश
या अतिशय कुछ जन्म से ही होती हैं, कुछ केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् होती हैं। वे इस प्रकार :
(१) मस्तक आदि समस्त शरीर के बालों का मर्यादा से अधिक (बुरे लगें ऐसे) न बढ़ना ।
(२) शरीर में रज मैल आदि अशुभ लेप न लगना।
(३) रक्त और मांस गौ के दूध से भी अधिक उज्ज्वल-धवल और मधुर होना ।
(४) श्वासोच्छ्वास में पद्म-कमल से भी अधिक सुगन्ध होना ।
(५) आहार और निहार चर्मचक्षु वालों द्वारा दिखाई न देना (अवधिज्ञानी देख सकता है)।
(६) जब भगवान् चलते हैं तो आकाश में गरणाट शब्द करता हुआ धर्मचक्र चलता है और जब भगवान् ठहरते हैं तब ठहरता है।
(७) भगवान् के सिर पर लम्बी-लम्बी मोतियों की झालर वाले, एक के ऊपर दूसरा और दूसरे के ऊपर तीसरा, इस प्रकार तीन छत्र आकाश में दिखाई देते हैं।
(८) गौ के दूध और कमल के तन्तुओं से भी अधिक अत्यन्त उज्ज्वल बाल वाले, तथा रत्नजड़ित डण्डी वाले चमर भगवान् के दोनों तरफ ढोरे जीते हुए दिखाई देते हैं।
(8) स्फटिक मणि के समान निर्मल देदीप्यमान, सिंह के स्कंध के आकार वाले रत्नों से जड़े हुए, अन्धकार को नष्ट करने वाले, पादपीठिकायुक्त सिंहासन पर भगवान् विराजे हुए हैं, ऐसा दिखाई देता है।
(१०) बहुत ऊँची, रत्नजड़ित स्तम्भ वाली और अनेक छोटी-छोटी ध्वजाओं के परिवार से वेष्टित इन्द्रध्वजा भगवान् के आगे दिखाई देती है ।
(११) अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं से युक्त, पत्र, पुष्प, फल एवं सुगंध वाला, भगवान् से बारहगुना ऊँचा अशोक वृक्ष भगवान् पर छाया करता हुआ दिखाई देता है।