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आत्मा का अस्तित्व व्रत' ग्रहण करने के बाद विटा के समय आचार्यश्री से विनती की "हे भगवन् । श्वेतम्बिका नगरी प्रामाटिक है, दर्शनीय है और रमणीय है, इसलिए वहाँ पधारने की कृपा करें ।"
चित्र मारयो ने इस प्रकार दो-तीन बार विनती की। तब आचार्यओ ने कहा--"हे चित्र । जिस वन में बहुत से दुष्ट श्वापद रहते हो, उस वन में रहना मुगलित नहीं है । उसी प्रकार जिस नगर में क्र.र राजा का शासन चलता हो, वहाँ जाना श्रेयस्कर नहीं माना जा सकता।'
चित्र ने कहा--" हे स्वामी | आप देवानुप्रिय को प्रदेशी राजा से क्या काम है ? राजधानी में दूसरे बहुत-से मेठ-श्रीमन्त रहते है । वे आपका आदर करेंगे और खानपान आदि की विपुल सामग्री से आपकी सेवा करेगे । आप वहाँ पधारेंगे तो महा उपकार होगा । इसलिए अवश्य पधारियेगा।"
चित्र के आग्रहपूर्ण व्यवस्थित आमत्रण को सुनकर आचार्यश्री ने कहा--"जैसी क्षेत्रस्पाना ।” साधु-मुनिगज ऐसे प्रसगो पर निश्चयकारी भाषा का प्रयोग नहीं करते; कारण कि सयोगो का बल उन्हें कत्र कहाँ खीच ले जायेगा, यह कहना मुटिकल होता है। वे 'हाँ' कह दे और जान सके, तो अमत्य भाषण का दोप लगे ओर लोगो में प्रवाद फैले कि 'महापुरुष भी ऐसा झूट बोलते हैं, जो कि किमी प्रकार वाछनीय नहीं है।
१ सव व्रतनियम सम्यक्त्व पूर्वक मफल होते हैं, इसलिए व्रत धारण करने से पहले सम्यक्त्व बोला जाता है और इमीलिए श्रावक के व्रत सम्यक्त्वमूल कहलाते है। उन बों के नाम निम्न प्रकार है (१) स्थूल प्राणातिपातविरमणव्रत । (२) स्थूलमृपावाट विरणव्रत । (३) स्थूल अदत्तादान विरमगव्रत । (४) परदाराविरमण-रवदारासनोपव्रत । (५) परिग्रहपरिमाणव्रत । (६) दिक् परिमाणवत । (७) भोगोपभोग परिमाणद्रत । (८) अनर्थदड परिमाणव्रत । (६) सामायिकव्रत । (१०) देशावकाशिकव्रत । (११) पोपधव्रत और (१२) अतिथि मविभागवत । इनमें से पहले पाँच अणुव्रत, बाद के तीन गुणव्रत और अन्तिम चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं ।