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अक्रम में ज्ञान स्वयं ही क्रियाकारी होता है। अतः अक्रम में कुछ करना नहीं पड़ता। मात्र ज्ञान को ही समझना है।
गुह्य, गुह्यतर और गुह्यतम ज्ञान क्या है ? जो आत्मा की सौ प्रतिशत प्रतीति बिठाए, वह गुह्य ज्ञान है। वह दर्शन के रूप में है। गुह्यतर ज्ञान वह अनुभव ज्ञान के रूप में है, जिसका दर्शन हुआ उसका अनुभव होता है और गुह्यतम ज्ञान अर्थात् जो संपूर्ण चारित्र में आ जाए, वह। अत: निरंतर स्व में ही रहता है, पर में प्रविष्ट ही नहीं होता। अक्रम में गुह्य ज्ञान मिलता है जो स्वयं क्रियाकारी है। जिस दिन से गुह्य ज्ञान मिलता है, उसी दिन से प्रज्ञा प्रकट हो जाती है और रात-दिन अंदर से सावधान करती रहती है।
अक्रम विज्ञान तो ग़ज़ब का विज्ञान है। उसकी थाह पाना महात्माओं के लिए बहुत कठिन है। यह तो, जैसे-जैसे दादाजी स्पष्ट रूप से समझाते जाते हैं वैसे-वैसे महात्माओं को टेली (मेल खाना) होता जाता है कि इसका तो हमें अनुभव हो रहा है, यह तो हमें बरतता है, वैसे-वैसे उसकी कीमत समझ में आती है। बाकी बालमंदिर के लोगों को दादाश्री दो ही घंटों में सीधा ज्ञानमंदिर में बिठा देते हैं। इसीलिए तो इतना रौब है महात्माओं का अध्यात्म में!
[5.2 ] चारित्र चारित्र दो प्रकार के हैं। एक व्यवहार चारित्र और दूसरा निश्चय चारित्र। व्यवहार चारित्र अर्थात् जिसका पालन करते हैं और जो बाहर से दिखाई देता है। तीर्थंकरों की आज्ञा में रहकर व्यवहार शुद्ध और उच्च कर दिया होता है। संपूर्ण रूप से तीर्थंकरों की आज्ञा में रहना, वह व्यवहार चारित्र कहलाता है, उसमें आत्मा का ज्ञान नहीं है। जबकि निश्चय चारित्र आत्मा का चारित्र है, वह ज्ञान होने के बाद होता है। निश्चय चारित्र अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी, बस! कषाय रहित व्यवहार। निश्चय चारित्र में कोई मेहनत नहीं करनी होती। व्यवहार चारित्र में खूब मेहनत करनी पड़ती है। लाख ज्ञानियों की एक ही आवाज़ होती हैं और तीन अज्ञानियों के बीच सौ मतभेद हो जाते हैं। जो निश्चय चारित्र में आया, वह तो बन गया भगवान !
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