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अक्रम में दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं। दर्शन पूरा ही मिल जाता है उसके बाद अनुभव होते-होते ज्ञान में आता है तब फिर बाद में चारित्र में आता है।
दादाश्री ज्ञान, दर्शन और चारित्र को संक्षिप्त में समझाते हुए कहते हैं कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' और 'चंदू फाइल है', ऐसी प्रतीति बैठ जाए तो उसे सम्यक् दर्शन कहा है। उसके बाद फाइल में क्या-क्या है और यह दूसरे में क्या-क्या है, यह सब जाने, वह ज्ञान है और ज्ञाता-दृष्टा रहना, वह चारित्र है।
महात्माओं के पास दर्शन तो पूर्ण है। पूरी दृष्टि ही बदल गई है। अब आत्म सम्मुख के अनुभव होने चाहिए।
महात्माओं को किस आधार पर अनुभव होता है ? 'जेब कट जाए तब काटने वाला निर्दोष है, हुआ वह सब व्यवस्थित है।' अनुभव के बिना ऐसा नहीं रह सकता। पहले अनुभव हो चुका हो तो दूसरी बार ज्ञान हाज़िर रहता है। वर्ना बहुत भोगवटा (सुख या दुःख का असर, भुगतना) आता है। जितना अनुभव हुआ उतना ही चारित्र की शुरुआत हो जाती है।
अक्रम में दर्शन-ज्ञान-चारित्र और क्रमिक में ज्ञान-दर्शन-ज्ञानचारित्र होता है।
क्रमिक में जो प्रथम ज्ञान होता है, वह शब्द ज्ञान, शास्त्र ज्ञान से या सुनने से होता है। शब्द ज्ञान पर से धीरे-धीरे आत्मा की श्रद्धा बैठती है, क्रमिक में दर्शन होने में बहुत देर लगती है। दर्शन होने के बाद निश्चय से ज्ञान प्राप्त होता है। उसके बाद वह निश्चयचारित्र में आता है। यह क्रमिक का तरीका है, ज्ञान दो बार आता है। पहले व्यवहार का, फिर निश्चय का। अतः क्रमिक में रिलेटिव में से रियल में जाते हैं और अक्रम में सीधे ही रियल मिल जाता है, ज्ञानविधि
से!
जहाँ पर कुछ भी करना पड़ता है, वह सब रिलेटिव है। त्याग, तप, जप, ध्यान, सबकुछ। रिलेटिव के बाद उसमें से अंत में जाकर रियल में आ पाते हैं।
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