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अंदर भाव होता है कि मुझे कमाना है, शादी करनी है, घर बनवाना है। अंदर ऐसे जो सूक्ष्म भाव बंध जाते हैं, वे भावकर्म हैं। भावकर्म सूक्ष्म है, वे व्यवहार में आते ही नहीं।
भावकर्म किस तरह बंधते हैं? किसी ने मेयर के दबाव से पचास हज़ार रुपये दान में दिए और अंदर उसे भाव में ऐसा रहता है कि 'अगर यह दबाव नहीं आया होता तो एक भी पैसा नहीं देता' तो ऐसे उसने भावकर्म बिगाड़ दिया, तो अगले जन्म में वह फल देगा और जो पचास हज़ार दिए, वह तो इफेक्ट है और उसका इफेक्ट इस जन्म में ही मिल जाता है। लोग 'वाह-वाह करते हैं।
'मैं चंदूभाई हूँ' तब तक भावकर्म है और जब ऐसा हो गया कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' तो भावकर्म खत्म हो जाता है। जगत् भावकर्म से ही कायम है। भावकर्म खत्म हुआ तो संसार अस्त हो जाएगा।
कर्ताभाव से भावकर्म बंधते हैं। भोक्ताभाव से भोगना, वह भी भावकर्म कहलाता है। अगर ऐसा ज्ञान रहे कि 'वास्तव में तो सबकुछ व्यवस्थित ही कर रहा है,' तो भावकर्म खत्म हो जाएगा।
__ [२.१२] द्रव्यकर्म + भावकर्म आठ प्रकार के द्रव्य कर्म हैं। जब वे डिस्चार्ज होते हैं तो वापस उसमें से भावकर्म बनते हैं। जो चार कषाय हैं, वे भावकर्म हैं। अब अगर द्रव्य कर्म के मालिक न बनें, उसमें कषाय न हों तो भावकर्म खत्म हो जाते हैं। अतः चार्ज कर्म बंद हो जाता है। मात्र देह की वजह से डिस्चार्ज कर्म भोगने बाकी रहते हैं।
भावकर्म के प्रकार या डिग्री नहीं बदलते। वे मूल जगह से टपकते रहते हैं। एक ही तरह का होता है। फिर उनसे नए द्रव्य कर्म बनते-बनते तो बहुत समय लग जाता है।
आत्मा ने अपनी शुद्धता कभी भी नहीं छोड़ी। ये तो जड़ और चेतन, इन दो तत्वों के इकट्ठे होने से व्यतिरेक गुण उत्पन्न हो गए हैं। मूलतः द्रव्य
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