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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
सारे दिखाई देते हैं हमें। आपने ‘आइए, पधारिए' कहा, वह नोकर्म है। 'अभी कहाँ से आ गए ये लोग?' उस भाव को भावकर्म कहते हैं। तो अब अगले जन्म में द्रव्यकर्म के रूप में इसका फल आता है, तब वह जानवर में जाता है कुत्ते के रूप में और कोई भी आए तो उसे भगाता रहता है, 'कहाँ से आ गए अभी, कहाँ से आ गए' ऐसा करता है।
मालिक न बनो तो कर्म छूट जाएँगे ये डिस्चार्ज क्रोध-मान-माया-लोभ हैं, वे नोकर्म हैं और वास्तविक क्रोध-मान-माया-लोभ जो होते हैं, वे भावकर्म हैं।
प्रश्नकर्ता : दादा, भावकर्म भी पूर्व संचित के आधार पर ही होते हैं न या पुरुषार्थ के आधार पर?
दादाश्री : भावकर्म जो बंधते हैं वे इस मोमबत्ती में से बनते हैं, आठ कर्मों के आधार पर।
प्रश्नकर्ता : तो पुरुषार्थ कहाँ रहा?
दादाश्री : पुरुषार्थ कुछ भी नहीं है। पुरुषार्थ तो जो भावकर्म होते हैं न, उसे 'खुद' जाने और उन्हें समभाव में लाए, तो उसे पुरुषार्थ कहते
प्रश्नकर्ता : यों समभाव में लाना भी कर्म के अधीन है न? दादाश्री : नहीं, कर्म के अधीन नहीं है, यह ज्ञान के अधीन है।
प्रश्नकर्ता : यदि यह पुरुषार्थ भाग नहीं है, तो फिर कर्म ही सर्व शक्तिमान हो जाएँगे न?
दादाश्री : हाँ, वह ठीक है। कर्म शक्तिमान हैं, वह भी पुरुषार्थ है। यह जो पुरुषार्थ है, वह भ्रांत पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ अर्थात् प्रगति। प्रगति दो प्रकार की होती है। एक सच्चा पुरुषार्थ, पुरुष होने के बाद का पुरुषार्थ, उससे प्रगति होती है और यह भ्रांत पुरुषार्थ है उससे भी प्रगति होती है। अतः यह पुरुषार्थ मदद करता है उसे, इस ज्ञान के बाद आपके भावकर्म