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[४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक
आत्मा का ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव प्रश्नकर्ता : दादा आप जब ज्ञान देते हैं तब उस ज्ञान में जो भेद ज्ञान होता है, उस समय शुद्धात्मा और प्रतिष्ठित आत्मा दो विभाजन हो जाते हैं। अब शुद्धात्मा जो है वह देखनेवाला और जाननेवाला रहा और जो प्रतिष्ठित आत्मा है, वह गलन है।
दादाश्री : गलन अर्थात् करनेवाला और भोगनेवाला।
प्रश्नकर्ता : करनेवाला और भोगनेवाला। अर्थात् यह प्रतिष्ठित आत्मा जो कुछ भी करता है, उसे शुद्धात्मा निहारता रहता है।
दादाश्री : हाँ, ठीक है। प्रतिष्ठित आत्मा जो कुछ भी करता है, उसे शुद्धात्मा देखता है। प्रतिष्ठित आत्मा का मतलब क्या है? कि तीन योगों से प्रतिष्ठित आत्मा कहलाता है। मनोयोग, वचनयोग और काया योग और ये तीनों क्या कर रहे हैं, उन्हें जो देखे, वही है इस शुद्धात्मा का कार्य।
प्रश्नकर्ता : लेकिन सब ज्ञेयों को देखने की-जानने की यह जो आत्मा की क्रिया है, ज्ञाता और दृष्टा, वह भी उसकी एक क्रिया ही हुई न! तो वह उसका एक कर्म हुआ न?
दादाश्री : देखने-जानने का तो खुद का मूल स्वभाव है। स्वभाव से बाहर निकलना कर्म कहलाता है। स्वभाव से विरुद्ध करना, उसे कर्म कहते हैं। स्वभाव को कर्म नहीं कहते। पानी नीचे चला जाए तो उसे कर्म नहीं कहते, वह स्वभाव कहलाता है और अगर ऊपर चढाना पडे तो कर्म करना पड़ता है।