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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
__ अतः देखने-जानने का तो उनका स्वभाव है। तो उसका फल क्या है? तो वह है परमानंद! बस। वह सब साथ में ही है सारा। देखना-जानना और परमानंद। अन्य अनंत गुण भी हैं।
आत्मा की सिर्फ ज्ञानक्रिया और दर्शन क्रिया प्रश्नकर्ता : देखने की क्रिया में भी कुछ करना तो होता ही है न?
दादाश्री : नहीं, उसमें करना नहीं होता। वह ज्ञानक्रिया कहलाती है। उसका कोई कर्ता नहीं होता। अहंकार नहीं होता। जबकि बाकी सभी क्रियाएँ अहंकार की होती हैं। भावकर्म, वे सभी अहंकार के हैं!
प्रश्नकर्ता : फिर व्यवहार में मात्र ज्ञाता-दृष्टा की तरह हूँ,' ऐसे किस प्रकार से रहा जा सकता है?
दादाश्री : व्यवहार में खुद कर्ता के रूप में है और वास्तव में वह ज्ञाता-दृष्टा है। अब व्यवहार में वह किस चीज़ का कर्ता है? संसार का कर्ता है और वास्तव में ज्ञाता-दृष्टा अर्थात् दर्शन क्रिया और ज्ञानक्रिया का कर्ता है। अन्य कोई क्रिया नहीं है, वहाँ पर सांसारिक क्रिया नहीं है।
ज्ञान उपयोग वह ज्ञानक्रिया कही जाती है और दर्शन उपयोग वह दर्शन क्रिया कही जाती है। अब यह ज्ञान उपयोग क्या है? तो वह है, 'यह जो क्रियावाला पुद्गल है वह खुद की क्रिया में परिणमन करता है। उन सभी क्रियाओं को देखनेवाला यह ज्ञान उपयोग है ! किसी भी पौद्गलिक क्रिया का कर्ता नहीं है। वह अपने खुद के स्वभाव का कर्ता है, न कि परभाव का कर्ता है।
मोक्ष के लिए ज्ञानक्रिया की ज़रूरत है। अज्ञान क्रिया बंधन है। क्रिया किसे कहते हैं? अहंकार की क्रिया को अज्ञान क्रिया कहा जाता है और जो निअहंकारी क्रिया है, उसे ज्ञानक्रिया कहा जाता है। इसका मतलब क्या है कि जो चारित्र मोहनीय कर्म हैं, अभी खाना खाने जाएँ तो वे सब डिस्चार्ज कर्म हैं। अब उसे देखते रहना, वही ज्ञानक्रिया कहलाती है। उस ज्ञानक्रिया से, ज्ञान क्रियाभ्याम मोक्ष। अभी आप जो कुछ भी करते हो न, उसे आप