Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 473
________________ ३८० आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : तो भले ही आए, अगर आए तो उससे हमें क्या?! किसी को दुःख हो जाए तो हमें चंदूभाई से कहना है कि 'भाई, प्रतिक्रमण कर।' तुझे करनेवाले और जाननेवाले के बारे में समझ में आता है? उसका ज्ञान राग-द्वेषवाला है और यह वीतराग है। उसे भी ज्ञान तो है ही, करनेवाले को भी राग-द्वेषवाला ज्ञान है। चाय पीनेवाला व्यक्ति क्या यह नहीं जानता कि वह चाय पी रहा है? प्रश्नकर्ता : जानता है। दादाश्री : लेकिन राग-द्वेषवाला है। उसके गुणधर्म में चला जाता है फिर कि फीकी है या मीठी है। प्रश्नकर्ता : तो फिर यह जो कुछ भी कर रहा है, वह अलग है। दादाश्री : अलग है और ज्यादातर तो वह हमें अच्छा ही नहीं लगता, तो हम उस अभिप्राय से भी उससे अलग हैं। प्रश्नकर्ता : अर्थात् मूलतः तो करनेवाला जो कोई भी है, वह अहंकार ही है न? दादाश्री : वही था, जो कर्ता था, वह यही है। यह तो ज्ञान लेने से पहले जो था, वही यह है। जिसे हम मानते थे कि 'यह मैं ही हूँ,' यह वही है। और जो जुदा हो गए, वे हम। ज्ञान होने के बाद से ही जुदा हुए हैं, पहले नहीं थे। प्रश्नकर्ता : पहले हम उसके साथ में ही थे। दादाश्री : साथ में ही थे, एक ही थे। प्रश्नकर्ता : अब सिर्फ हम अंदर अलग हो गए हैं, बाकी, करनेवाला तो है ही। दादाश्री : हाँ, है ही। वह तो वही का वही है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518