________________
३९६
आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
दादाश्री : हो जाता है परिवर्तन। जितना जागृत उतना ही परिवर्तन हो जाता है। जागृत होता है तो खत्म हो जाता है सब यों ही।
विधि के समय दादा एकाकार एक मिनट के लिए भी हम एक वर्क (काम) में नहीं रहते। हर वक्त हमारे दो काम रहते हैं। कुछ समय के लिए ही, जब विधि होती है, तब एक काम में रहता हूँ, वर्ना खाते समय, नहाते समय, दो वर्क में रहता हूँ।
प्रश्नकर्ता : वे दो वर्क कौन से हैं?
दादाश्री : ये मुझे नहलाते हैं और मैं खुद के ध्यान में रहता हूँ यानी ज्ञाता-दृष्टापन रहता है। अतः हमारे तो हमेशा ही दो (वर्क) रहते हैं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन वे नहला रहे हों, आप तो ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं तो दोनों वर्क कैसे हुए?
दादाश्री : खुद नहा रहा होता हूँ, उनके साथ बातें भी करता जाता हूँ। वे समझें कि अपने साथ ही हैं। किसी को ऐसा पता नहीं चलता कि ये दूसरे काम में हैं जबकि कोई और दूसरे काम में पड़े तो हमें ऐसा जान पड़ता है कि खो गया है। कुछ खो सा गया है ऐसा लगता है। हमारा ऐसा पता नहीं चलता।
प्रश्नकर्ता : और जब आप विधि कर रहे होते हैं, तब एक काम तो वह कौन सा काम है?
दादाश्री : उसमें तो एक ही काम में। विधि करने में ही रहते हैं। प्रश्नकर्ता : जब ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं, तब आप क्या करते हैं?
दादाश्री : नहीं, विधि करते समय ज्ञाता-दृष्टा नहीं रहते। उस घडी एक्ज़ेक्ट ज्ञानीपुरुष के रूप में रहते हैं, वर्ना आपका काम फलेगा नहीं न !
प्रश्नकर्ता : यानी एक्जेक्ट आप ए.एम.पटेल हो जाते हैं या क्या होता है वह?