Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 494
________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ४०१ पूरी होने तक फाइलें दिखाता रहेगा। वह दिखाता रहेगा और हम देखते रहेंगे। ज्ञेय नहीं रहेंगे तो ज्ञाता खत्म हो जाएगा। अत: यह जो ज्ञेय हैं, वे सिनेमा की तरह है। मन अंत तक दिखाएगा इसलिए ज्ञाता कभी खत्म नहीं होगा। देखनेवाला चैतन्य पिंड शुद्धात्मा है प्रश्नकर्ता : और जो देखते रहना है, वह किसे देखते रहना है? कौन देखता रहता है? दादाश्री : जो शुद्धात्मा बना है, ज्ञाता बना है, वह देखता रहता है। प्रश्नकर्ता : दादा, ऐसा है कि यह जो हमें शुद्धात्मा का अनुभव हुआ है, उस पर से हमारे मन में ऐसा ख्याल आता है कि वह तो एक चैतन्य पिंड है, उसमें क्या करना और क्या देखना? दादाश्री : देखनेवाला खुद ही है। जो चैतन्य का पिंड है वह देखता है। वह किसे देखता है? ज्ञेय को देखता है। अतः विचार ज्ञेय हैं और आप ज्ञाता हो। जब तक ज्ञाता को ज्ञेय नहीं दिखाई दे, तब तक उसे व्यवहार नहीं कहा जा सकता। ज्ञेय और ज्ञाता एकाकार न हों तो उसे ज्ञान कहते हैं। ज्ञेय में परिणमित नहीं होना है। पहले ज्ञेय में परिणमित हुए, उसी से तो संसार खड़ा हो गया है। विचार जड़ चीज़ है, उसमें बिल्कुल भी चेतन नहीं है। उनमें परिणमित होकर यह संसार खड़ा हो गया है। भटक, भटक, अनंत जन्मों से भटके हैं, फिर भी ठिकाना नहीं पड़ा जबकि इसमें तो यह खुद ज्ञाता बन गया। ज्ञेय को देखता है, सभी ज्ञेयों को देखता है। क्रिया किए बिना देखता है। खुद के ज्योति स्वरूप में सब झलकता है। उसके लिए अब कोई ऐसी क्रिया नहीं करनी है, सबकुछ यों ही अपने आप झलकता है उसमें। प्रश्नकर्ता : अर्थात् आपने यह जो ज्योति स्वरूप कहा है उसमें झलकता है, वह ठीक है लेकिन यह जो ज्ञाता-दृष्टा रहना है, वह ज्योति स्वरूप को रहना है? दादाश्री : वही। जिसमें झलकता है, वही ज्ञाता-दृष्टा है। वह ज्योति

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