Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 510
________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ४१७ प्रश्नकर्ता : आपने हमें ज्ञायक बना दिया, इस स्थिति में रख दिया लेकिन अभी आपकी जो दशा है, हमारी दशा वैसी तो है ही नहीं न? दादाश्री : नहीं, ऐसा है न, उस दशा को प्राप्त करनेवाले सभी लोग एक ही माने जाते हैं क्योंकि अवस्था की सारी आधि-व्याधि छूट जाती है। प्रश्नकर्ता : हाँ, आधि-व्याधि तो पूरी तरह से निकल जाती है। दादाश्री : तो बस, जिसमें आधि-व्याधि-उपाधि बाधक नहीं हो, वही ज्ञान सच्चा है। उसके बाद कोई किताब नहीं पढ़नी पड़ती, आगे जाकर कभी भी कच्चा न पड़े, वही ज्ञान सच्चा है। जिसे पढ़ते ही रहना पड़े उसका कब अंत आएगा? 'मैं करता हूँ' और 'मैं जानता हूँ' उसका मिक्सचर, उसी को ज्ञेय कहते हैं और 'मैं जानता हूँ' और 'करता नहीं हूँ,' वह है ज्ञायक भाव। प्रश्नकर्ता : यह हिंसा है, यह अहिंसा है। यह अच्छा है, यह बुरा है, ये सभी द्वंद्व हैं तो ये द्वंद्व ज्ञायक को बरतते हैं या उन्हें सिर्फ देखते रहना है? दादाश्री : उसके लिए तो सभी कुछ ज्ञेय ही है, ज्ञेय और दृश्य दो विभाजन कर दिए हैं। एक यह दृश्य है और यह ज्ञेय है। और कोई झंझट ही नहीं है। प्रश्नकर्ता : फिर ज्ञायक को तो ऐसा भेद बरतता ही नहीं न कि यह अच्छा है या यह बुरा है। दादाश्री : भेद जैसी चीज़ है ही नहीं न! ज्ञायक और देखनेवाले को भेद जैसी कोई चीज़ है ही नहीं। भेद जैसी चीज़ अंधों के लिए है। अहंकार अंधा है, इसलिए उसे ऐसा सब होता है कि यह अच्छा है और यह खराब है और यह जो देख सकता है उसे तो ऐसा कुछ है ही नहीं। प्रश्नकर्ता : आपने पूछा था कि आप हिंसा में हो या अहिंसा में हो? तो मैंने जवाब दिया कि अहिंसा में। तब मुझे अंदर हुआ कि अपने लिए हिंसा और अहिंसा है ही क्या? वह ठीक है?

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