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[४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक
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दादाश्री : इस तरफ पीछे कुछ भी नहीं है। यह अंतिम शब्द है। शब्द के रूप में अंतिम है 'खुद'। उसके बाद कुछ भी नहीं है, वह खुद, खुद ही है। उसका कोई भाग नहीं है, विभाजन नहीं है, कुछ भी नहीं है।
प्रश्नकर्ता : तो इसमें उसे हम इस तरह से कह सकते हैं कि ज्ञायक यों देखे तो संसार है और इस तरफ देखे तो परमात्मा है, ऐसा कह सकते हैं?
दादाश्री : नहीं। ज्ञायक को संसार दिखाई ही नहीं देता। संसार दिखाई देता है, वह तो जिसे यह देहाध्यास है उसे दिखाई देता है। स्मृतिवाले को, राग-द्वेषवाले को संसार दिखाई देता है। ज्ञायक तो तत्वों की अवस्थाओं को मात्र जानता है, संसार में वह अन्य कुछ भी नहीं जानता।
प्रश्नकर्ता : लेकिन अवस्था के रिलेशन में हम ज्ञायक कहते हैं न?
दादाश्री : हाँ, वह तो जितना ज्ञेय दिखाई देता है उतना जानता है, अन्य कोई स्मृति नहीं है न! सभी अवस्थाओं को जानता है। मुझे एक व्यक्ति ने पूछा कि ज्ञानी को तो यह सबकुछ नहीं दिखाई देता है न, यह संसार? मैंने कहा, 'क्यों?' मुझे क्या सूर्य गिरा हुआ दिखाई देता होगा? नहीं? ऐसा ही दिखाई देता है। जैसा आपको दिखाई देता है वैसा ही मुझे दिखाई देता है लेकिन मेरे देखने में और आपके देखने में फर्क है।
प्रश्नकर्ता : अंबालाल देखते हैं, ऐसा आप जानते हैं?
दादाश्री : हाँ, अंबालाल देखते हैं ऐसा। जैसे तेरे ये चश्मे देखते हैं, उस तरह से।
प्रश्नकर्ता : हाँ, हाँ, ठीक है। दादाश्री : ठीक है। आप समझ गए ऐसा।
प्रश्नकर्ता : यानी कि यह ज्ञायकपना जो एक के लिए हैं वही अनेकों के लिए है। जो अंबालाल को देखते हैं, वे समस्त ब्रह्मांड को देख सकते हैं, ठीक है?
दादाश्री : हाँ, ठीक है, समस्त ब्रह्मांड को देखने की शक्ति रखते