________________ [5] आत्मा और प्रकृति की सहजता से पूर्णत्व 425 रहता है। इसे सहज आत्मा होना कहा जाता है। अब से मन-वचन-काया को सहज करने के लिए जैसे-जैसे ज्ञानीपुरुष की आज्ञा का पालन करते जाएँगे, वैसे-वैसे मन-वचन-काया सहज होते जाएँगे। प्रश्नकर्ता : इसमें आप कहते हैं कि सहज भाव से निकाल करना है, तो सहज भाव विकसित करने का तरीका क्या है? दादाश्री : सहज भाव का मतलब क्या है? यह ज्ञान मिलने के बाद आप शुद्धात्मा हो गए, इसलिए आप सहज भाव में ही हो। क्योंकि जब अहंकार हाज़िर नहीं रहता तब सहज भाव ही रहता है। अहंकार का एब्सेन्स का मतलब ही सहज भाव। यह ज्ञान ले लिया अर्थात् आपका अहंकार एब्सेन्ट है। आप जो ऐसा मानते थे कि 'मैं चंदूभाई हूँ' अब नहीं मानते हो न? तो हो गया! कहता है, 'मैंने वकालत की और मैंने छुड़वा दिया और मैंने ऐसाऐसा किया न और मैं संडास जाकर आ गया!' ओहोहो, 'कल क्यों नहीं गए थे?' तब कहता है 'कल तो डॉक्टर को बुलाना पड़ा, रुक गया था अंदर।' सक्रियता बल्कि बढ़ जाती है इससे। अहंकार की वजह से सक्रियता है। अहंकार की वजह से सबकुछ बिगड़ गया है। यह अहंकार दूर हो जाए तो सबकुछ रेग्यूलर हो जाएगा, साहजिक हो जाएगा फिर। अहंकार सबकुछ बिगाड़ देता है, खुद का ही बिगाड़ता है और अगर साहजिकता हो तो सबकुछ सुदंर चलता है। प्रश्नकर्ता : देह की संपूर्ण सहजता, वह भगवान है। आत्मा की सहजता भगवान नहीं कहलाती। देह सहज हो जाए तो आत्मा सहज हो जाता है। आत्मा सहज हो जाए तो देह अपनेआप सहज हो जाता है न! क्या दोनों अन्योन्य नहीं हैं? दादाश्री : आत्मा तो सहज ही है। 'देह की संपूर्ण सहजता, वही भगवान है' वह ठीक है, वह बात सही है। देह की संपूर्ण सहजता हो जाए