Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 513
________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : अब ज्ञायक भाव को स्मृति का संग नहीं है, ज्ञायक भाव का कोई आधार ही नहीं होता । ४२० दादाश्री : आधार की ज़रूरत नहीं है। प्रश्नकर्ता : हाँ, तो वहाँ पर फिर क्या है? ज्ञायक से आगे क्या है? दादाश्री : कुछ भी नहीं है। खुद ज्ञायक है, जाननेवाला खुद है, सभी कुछ खुद ही है और खुद, खुद को जानता है क्योंकि यह दर्पण जैसा है, अंदर पूरी दुनिया दिखाई देती है । प्रयत्न नहीं करना पड़ता । प्रश्नकर्ता : हाँ, वह तो जानपना है। दादाश्री : ज्ञायक। प्रश्नकर्ता : ज्ञायक। लेकिन उसमें ज्ञायक आया और जब हम ज्ञायक से आगे जाएँ तब क्या होता है ? दादाश्री : आगे नहीं है । यह ज्ञायक भी कल्पित व्यवहार के लिए ही है। बाकी, ज्ञायक भी नहीं है वह । वहाँ तो कोई शब्द है ही नहीं। वह तो अभी जब तक हम व्यवहार में हैं, तभी तक है । वहाँ पहुँचने तक । अपने हिस्से में यह आया है और जब वह हिस्सा नहीं रहेगा, तब वह 'खुद' ही रहेगा। प्रश्नकर्ता: चंदूभाई को पिछली स्मृति का संग है, चंदूभाई को इस स्मृति का संग है ऐसा जानना, वह ज्ञायकपना है ? I दादाश्री : मेमरी का बेसमेन्ट क्या है ? राग-द्वेष । अभी तक, जब तक वह सबकुछ राग-द्वेष से देख रहा था, तब तक मेमोरी थी। अब वह उस मेमोरी को जिस राग-द्वेष से देख रहा था, उसे भी वह खुद वीतरागता से देखता है। प्रश्नकर्ता : अब वीतरागता से देखता है तो वह ज्ञायकपना है? दादाश्री : हाँ, वह ज्ञायकपना है I प्रश्नकर्ता : अब ज्ञायकपना और वीतरागता है, तो फिर उसके बाद इस तरफ कुछ भी नहीं है ?

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