Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 496
________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ४०३ होता जाता है और जब सर्व ज्ञेयों का ज्ञाता बन जाए, तब केवलज्ञान कहलाता है। ज्ञेय-ज्ञाता का संबंध निरंतर ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव का ही है। जो आत्मा दिया था न, शुद्धात्मा, उसका स्वभाव ही ज्ञायक है। ज्ञेय हाज़िर हुआ कि यह ज्ञायक खुद अपनी जागृति दिखाता है। प्रश्नकर्ता : हाँ, तो इसे व्यवहार में किस तरह उतारें? दादाश्री : व्यवहार में ही है यह। यह व्यवहार ज्ञेय है और निश्चय ज्ञायक है। दोनों का संबंध यही है। व्यवहार-निश्चय का ही संबंध है। व्यवहार में ज्ञेय के अलावा कोई भी चीज़ नहीं है। व्यवहार में कोई ज्ञाता नहीं है और निश्चय में ज्ञाता के अलावा अन्य कोई चीज़ नहीं है। प्रश्नकर्ता : वह तो ठीक से समझ में आ गया। तो व्यवहार में जब पाँच-छ: कार्य इकट्ठे हो जाते हैं तो ज्ञाता-दृष्टा का भाव चला जाता है उसके बाद कुछ समय में वापस आ जाता है। दादाश्री : नहीं, चला नहीं जाता। वह तो ऐसा भासित होता है। वह चला नहीं जाता। प्रश्नकर्ता : दूसरी विभाव दशा में तन्मयाकार हो जाते हैं? दादाश्री : चला नहीं जाता। ऐसा है न कि यहाँ पर लाइट हो लेकिन अगर हम सो जाएँ तो हमें अंदर अंधेरा दिखता है। ज़रा डोजिंग हो जाए इसका मतलब लाइट कहीं चली नहीं गई है। लाइट तो उतनी ही प्रकाशमान है। अर्थात् यह जो व्यवहार है, वह पूरा ज्ञेय स्वरूप से है और निश्चय ज्ञायक स्वरूप से है। अब दोनों के बीच संबंध स्थापित हो गया। ज्ञेय-ज्ञाता का संबंध हो गया यह। निरंतर ज्ञाता-दृष्टा वही केवलज्ञान प्रश्नकर्ता : अब शुद्धात्मा की जागृति और ज्ञाता-दृष्टा भाव बहुत

Loading...

Page Navigation
1 ... 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518