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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
स्वरूप है, ज्ञायक है। शुद्धात्मा है। वही का वही, एक का एक ही है, उसमें दूसरा कोई नहीं है। सिर्फ ज्ञेय जुदा है। जो विचार आते हैं खराब और अच्छे, वे दोनों ही ज्ञेय हैं। वे ज्ञेय अलग हैं और फिर बुद्धि भी ज्ञेय है, मन भी ज्ञेय है, अहंकार भी ज्ञेय है। यह पूरा ही जगत् ज्ञेय है। तो महावीर भगवान खुद उस ज्ञेय को, पुद्गल को ही देखते रहते थे। खुद ज्ञाता व ज्ञायक है और पुद्गल जो है वह ज्ञेय है।
ब्रह्मांड के अंदर और बाहर? प्रश्नकर्ता : ब्रह्मांड के अंदर और ब्रह्मांड के बाहर से देखना, इसका क्या मतलब है? ज्ञेयों में तन्मयाकार हुआ तब ब्रह्मांड में है और ज्ञेयों को ज्ञेय के रूप में देखे, तब ब्रह्मांड से बाहर कहा जाता है, यह समझ में नहीं आया।
दादाश्री : ब्रह्मांड से बाहर देखने को ज्ञान कहते हैं! प्रश्नकर्ता : ब्रह्मांड का मतलब क्या है?
दादाश्री : यह सारा ब्रह्मांड ही है न! यह सारा उसी का फोटो है न! मन में विचार आया, और उसमें तन्मयाकार हो गया तो ब्रह्मांड में है। मन में विचार आया और तन्मयाकार नहीं हुआ तो ब्रह्मांड से बाहर कहलाता
है।
पूरा जगत् ज्ञेयों में ही तन्मयाकार है न! जो विचार आते हैं न, जगत् उन्हीं में तन्मयाकार हो जाता है। जबकि आप देखते हो कि क्या विचार आ रहे हैं और क्या नहीं!
प्रश्नकर्ता : और ब्रह्मांड से बाहर का मतलब क्या है? दादाश्री : खुद के स्वरूप में रहना!
प्रश्नकर्ता : हाँ, ज्ञेय और अवस्था, दोनों एक ही हैं या दोनों नाम अलग-अलग हैं?
दादाश्री : वह सब एक ही है। सभी ज्ञेय अवस्था हैं। अवस्था ही ज्ञेय हैं। जैसे-जैसे बहुत सारे ज्ञेय दिखने लगते हैं, वैसे-वैसे ज्ञातापद मज़बूत