Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 504
________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ४११ चाहे तभी के तभी काम में आएँ ऐसी हों या काम में न आएँ ऐसी हों, वे विरोधी स्वभाव की हों या शास्त्रज्ञान से विरुद्ध हो, फिर भी उन्हें सिर्फ देखना ही है। उन पर द्वेष नहीं करना है। अपना विज्ञान ज़रा अलग प्रकार का है। अपना अक्रम विज्ञान ऐसा है कि पूरी तरह से छूटा जा सके। प्रश्नकर्ता : सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम निदिध्यासन में कोई अंतर है या नहीं? उसमें तो अतीन्द्रिय रह गया न बिल्कुल। दादाश्री : कौन सा? प्रश्नकर्ता : सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम निदिध्यासन तो पूरा अतीन्द्रिय हुआ न? दादाश्री : वह सारा तो अतीन्द्रिय ही है। अपना माल अतीन्द्रिय ही प्रश्नकर्ता : तो उसी को अखंड जागृति कहते हैं? दादाश्री : अखंड जागृति ही है यह। वह संपूर्ण रूप से प्रकाशमान हो जाए तब केवलज्ञान कहलाता है। सामने की तरफ जो देखना था वह नहीं दिखाई देता, बीच में अंतराय आ जाते हैं। अपनी यह संसारी फिल्म आ जाती है बीच में। जब संसारी फिल्म नहीं रहे न, तब टंकी खाली हो जाती है, और भी मज़ा आता है। प्रश्नकर्ता : तो सामने क्या देखना होता है? दादाश्री : सामने की तरफ वास्तविक ज्ञेय है। प्रश्नकर्ता : इसका मतलब? दादाश्री : यह वास्तविक ज्ञेय नहीं है। ये तो अपने कर्म के उदय हैं सारे। जिन्हें वास्तविक ज्ञेय कहा जाता है, वहाँ पर उस वास्तविक ज्ञेय में दिखता है हमें! प्रश्नकर्ता : वास्तविक ज्ञेय में क्या जाना जा सकता है?

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