Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 500
________________ [४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक ४०७ है। चेतन में सब झलकता है। इसलिए खुद को पता चलता है कि अंदर यह क्या हुआ, कौन-कौन दिख रहा है। ऐसा ज्ञाता-दृष्टा है। अंतिम ज्ञातादृष्टा इस प्रकार से है। प्रश्नकर्ता : अंतिम ठीक है लेकिन अभी मान लीजिए कि मैं कोई कार्य कर रहा हूँ, मैं देख रहा हूँ तो क्या मुझे ऐसा रहेगा कि ये चंदूभाई कर रहे हैं? दादाश्री : हाँ। प्रश्नकर्ता : लेकिन मेरे दिमाग में ऐसा आता है कि चंदूभाई कुछ कर रहा है, उसे यह बात समझानेवाला कौन है? उस समय मन-चित्त सभी हाज़िर हो जाते हैं। दादाश्री : वह सब पुद्गल कहलाता है और यह चेतन कहलाता है। इस चेतन में जिसे आत्मा कहते हो न, वह आत्मा नहीं करता। आत्मा में से एक शक्ति है, जो प्रज्ञा नामक शक्ति है, वह उसमें से बाहर आती है। प्रज्ञाशक्ति से दिखाई देता है वह सब। यह प्रज्ञाशक्ति आत्मा में से निकलती है। उस प्रज्ञाशक्ति का काम क्या है? किस प्रकार से 'उसे' मोक्ष में ही ले जाए, उसी के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहती है। वह सावधान करती है। अब उसके सामने दूसरी शक्ति कौन सी? तो वह है 'अज्ञाशक्ति।' जिसे हम बुद्धि कहते हैं न, वह अज्ञाशक्ति है। वह मोक्ष में जाने ही नहीं देती। उलझाउलझाकर हमें अंदर ही अंदर ले आती है, अपने घेरे में। अब प्रज्ञाशक्ति क्या करती है? बुद्धि जो उलझा-उलझाकर ले गई है, उसे वह दूसरी ओर ले जाती है। प्रश्नकर्ता : तो इसका मतलब प्रज्ञाशक्ति के माध्यम से ही ज्ञातादृष्टा रह पाते हैं? दादाश्री : बस, प्रज्ञाशक्ति से ही। आत्मा से नहीं। जो ज्ञाता-दृष्टा रहा, वही वीतराग प्रश्नकर्ता : हम चर्चा कर रहे थे कि संपूर्ण रूप से ज्ञाता-दृष्टा कौन

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