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[४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक
दादाश्री : डिस्चार्ज ही होता रहता है लेकिन चकराकर, बोझ बढकर होता है। उन्हें अनुभव है न? आता है तो पंद्रह-पंद्रह मिनटों तक किसी जगह पर उलझता रहता है। आधे-आधे घंटे तक उलझन में रहता है न! वही बोझ है।
प्रश्नकर्ता : फिर अपना बढ़ कब जाता है?
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दादाश्री : अब अगर दृष्टि नहीं रहे तो, ज्ञाता - दृष्टा नहीं रहें तो बोझ बढ़ जाएगा।
प्रश्नकर्ता : फिर उसमें अंदर खुरचता है क्या? अंदर समेट पाता है
क्या?
दादाश्री : नहीं, समेटता नहीं है। वह अपनी खुद की जागृति नहीं रखता। समेटने-वमेटने का कुछ है ही नहीं।
'हाउ टू डील' ऐसा वह नहीं कर पाता । वह समझ नहीं पाता कि यहाँ क्या डीलिंग करनी है, जैसे कि किसी के प्रति उल्टा अभिप्राय नहीं बने, उसके लिए हमें कहना पड़ता है कि 'यह बहुत उपकारी है, उपकारी है।' तो अभिप्राय बंद हो जाते हैं । ऐसा 'हाउ टू डील विथ हिम' जानना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : यानी 'हाउ टू डील' की जो समझ है, वह इस ज्ञान के बाद प्रज्ञा जागृत हो जाने के बाद ही आती है न?
दादाश्री : हाँ, बाद में ही तो । पहले नहीं हो सकती न ! बुद्धि तो कितना दिखा सकती है? बहुत बुद्धिशाली और अहंकारी अंधे हैं। उनके बजाय कम बुद्धिशाली अच्छे हैं बेचारे ।
यह सब जानने के लिए अपने नज़दीक सिर्फ उत्तम निमित्त के संयोग की ज़रूरत है ।
प्रश्नकर्ता : पहले का जो जीवन था, उस जीवन में परिवर्तन आ जाता है न?