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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
सकेगा? थोड़ा नशा उतरे, तब ज़रा साक्षीभाव रह सकता है। जैसे कि शराब का नशा कुछ उतरे, तब होश आता है कि 'ओहोहो, आज तो मुझे बहुत चढ़ गई है।' उसी प्रकार यह मोह का नशा चढ़ा हुआ है। पूरी दुनिया मोह के नशे में घूम रही है और मानती है कि 'मैं कुछ धर्म कर रहा हूँ।' अरे, कैसा धर्म? यह तो कर्म कर रहा है। धर्म तो उसे कहते हैं कि चारों तरफ से सुगंधी फैले और दूसरा धर्म है, आत्म धर्म। वह मुक्ति दिलवाता है। इस धर्म को धर्म कहेंगे ही कैसे? हर एक चीज़ अपने स्वभाव में होती है। आइस्क्रीम यदि कड़वी लगे तो कोई खाएगा क्या? एक ही दिन कड़वी लगे तो फिर से जाएगा क्या?
प्रश्नकर्ता : नहीं जाएगा दादाजी, कोई नहीं जाएगा।
दादाश्री : उसी प्रकार अगर धर्म ही ऐसा फल दे रहा हो....पूरे दिन नशा चढ़ा रहे तो उसे साक्षीभाव कैसे रह पाएगा? किसी का ज़रा नशा उतरे, तब साक्षीभाव रहता है कुछ देर के लिए जबकि ज्ञाता-दृष्टा भाव तो निरंतर रहता है। साक्षीभाव तो अहंकार की एक प्रकार की जागृति है और दृष्टा, वह आत्मा की जागृति है। वह प्रज्ञा कहलाती है। प्रज्ञा की जागृति कहलाती
है।
तब बनता है आत्मा ज्ञाता प्रश्नकर्ता : चंदूभाई को आप ज्ञेय कहते हैं, तो फिर क्या वह ज्ञाता नहीं बन सकता, ऐसा कह रहा हूँ।
दादाश्री : ज्ञेय ज्ञाता कब बनता है कि जब ज्ञानीपुरुष उसका खुद का भान करवा दें। उसके बाद वह ज्ञेय भाग में से मुक्त हो जाता है। 'मैं चंदूभाई हूँ' वह तो सिर्फ रोंग बिलीफ है क्योंकि उसे ज्ञेय क्यों कहा गया है कि खुद जिस ज्ञान को जानता है, वह बुद्धिजन्य ज्ञान है। अर्थात् वह ज्ञेय है, जब तक वह खुद ज्ञेय को जानता है तब तक संसार व्यवहार चलता रहता है। इस ज्ञेय को भी यदि 'खुद' जाने, तब वह ज्ञाता है।
भगवान ने जानने की चीज़ों को ज्ञेय कहा है। उसे ऐसा कहा है कि, 'आज जिसे हम ज्ञाता मान बैठे हैं, उसे जब ज्ञेय के स्वरूप में समझेंगे तो