Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 483
________________ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) कुछ ज्ञेय हैं ऐसी जागृति रखना बहुत मुश्किल चीज़ है । इसलिए लोगों को क्या कहा है कि चंदूभाई अगर सामनेवाले को गाली देता है तो तुझे चंदूभाई से कहना चाहिए कि 'अतिक्रमण क्यों किया? तू प्रतिक्रमण कर । ' अंश में से सर्वांश ज्ञानीपद ३९० प्रश्नकर्ता : अब बुद्धि एक चीज़ में डिसीज़न नहीं देती, अहंकार नहीं है तो विसर्जन है। जबकि आपने दूसरी बात कही कि मन पैम्फलेट दिखाता है, चित्त भटकता है, बुद्धि डिसीज़न देती है, अहंकार हस्ताक्षर करता है, यह सब जो चल रहा होता है, उसे अगर 'जाने' तो बंधन नहीं है न? दादाश्री : हाँ, अगर जाने तभी उसे बंधन नहीं है। इसे जाननेवाला अलग रहना चाहिए, तभी वह बंधन में नहीं है । जानकार रहा, ज्ञाता रहा तो फिर सबकुछ गया ! लेकिन वह हमेशा के लिए ज्ञाता नहीं रह पाता न ! ऐसा है न कि यह संपूर्ण ज्ञानीपद और अंश ज्ञानीपद, दोनों ही हैं न ! तो एक तरफ ज्ञातापद भी होता है और एक तरफ थोड़ा बहुत वह भी चलता रहता है । सर्वांश होने तक दोनों चलता रहता है। सर्वांश होने तक एकदम से नहीं हो सकता । ज्ञातापद हमेशा के लिए नहीं रह पाता। थोड़े समय के लिए, कुछ समय तक रहता है और वापस वैसे का वैसा ही, ऐसे करते-करते सर्वांश होता जाता है । क्योंकि पिछले धक्के लगते रहते हैं न ! एक मंज़िल चढ़नी हो और हम कहें कि एकएक सीढ़ी चढ़ गए तो इसका मतलब यह नहीं कि ऊपर तक पहुँच गए। जितनी सीढ़ियाँ चढ़े उतने ऊपर पहुँचे । प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन सर्वांश कौन बनता है ? दादाश्री : सर्वांश तो खुद है ही। प्रश्नकर्ता : है ही और जो नहीं है, वह होता जा रहा है? दादाश्री : हाँ, जो नहीं है, वह होता जा रहा है। प्रश्नकर्ता : तो वह अपने आप ही हो रहा है?

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