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[४] ज्ञाता-दृष्टा, ज्ञायक
दादाश्री : जाननेवाले के लिए दोष नहीं है । हम दोष किसे कहते हैं? पूरे दिन जो व्यवहार चलता रहता है, उस व्यवहार को हम दोष नहीं कहते।
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प्रश्नकर्ता : मैं तो क्या कहता हूँ कि एक-एक सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार आए, उसे भी हमने जाना....
दादाश्री : हाँ, यदि आप जाननेवाले हो तो जाननेवाले का दोष नहीं है यह।
प्रश्नकर्ता : लेकिन मैं तो कहता हूँ कि उन विचारों का भी दोष कैसे कहा जाएगा?
हैं,
दादाश्री : जाननेवाले का दोष नहीं है लेकिन चंदूभाई क्या कर रहे उसे खुद जाने तो उस क्रमण में हर्ज नहीं है लेकिन चंदूभाई किसी को डाँट रहे हों, ‘उसे' देखे तो वह क्या कहता है कि 'यह आपका दोष है । ' खुद चंदूभाई से कहेगा कि 'यह आपका दोष है, ऐसा नहीं होना चाहिए।'
प्रश्नकर्ता : लेकिन जब हम ज्ञायक ही रहें, चंदूभाई के भी ज्ञायक रहें तो किसी भी चीज़ में दोष या अच्छाई है ही नहीं ।
दादाश्री : है नहीं, लेकिन मेरा कहना है कि यह अक्रम है न, इसलिए सिर्फ शुभ ही नहीं होता न !
प्रश्नकर्ता : लेकिन शुभ-अशुभ का प्रश्न ही कहाँ आया?
दादाश्री : मेरा कहना है कि जो माल देखना है, यदि वह सारा शुभ ही हो तो उसमें हर्ज नहीं लेकिन क्योंकि अक्रम है इसलिए अशुभ माल भी भरा हुआ है।
प्रश्नकर्ता : वह ठीक है दादाजी । मैं क्या कहना चाहता हूँ कि अशुभ और शुभ सबकुछ भरा है, कचरा भरा है लेकिन यदि हम ज्ञायक ही हैं तो जो आना हो वह आए, उसका विभाजन करने का प्रश्न ही कहाँ आता है।
दादाश्री : यह विरोधाभास लग सकता है लेकिन शुभ-अशुभ सभी