Book Title: Aptavani Shreni 13 Purvarddh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 469
________________ ३७६ आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : वह सब पता रहता ही है हमेशा। उसे चंदूभाई के रूप में देखता है न, उस सभी का हमें पता चलता है कि चंदूभाई क्या कर रहे हैं। जैसे औरों की खबर जानते हैं कि क्या कर रहा है, उसी तरह हम ये भी जानते हैं कि चंदूभाई क्या कर रहे हैं। क्योंकि शुद्धात्मा बिल्कुल ही अलग करके दे दिया है कि सबकुछ आपको पता चल ही जाता है। प्रश्नकर्ता : 'चंदूभाई बनकर चंदूभाई को देखता है,' उसका उदाहरण दीजिए तो पता चले। दादाश्री : चंदूभाई-चंदूभाई को नहीं देखते, शुद्धात्मा चंदूभाई को देखते हैं। प्रश्नकर्ता : वह ठीक है लेकिन इन्द्रियज्ञान से हम जानते हैं, उसका उदाहरण दीजिए। दादाश्री : यानी ये सब क्या देखते हैं, ये आँखों से जो देखते हैं वह सब इस इन्द्रियज्ञान से ही है न, ये सब कान से सुनते हैं, जीभ से चखते हैं, वह सारा इन्द्रियज्ञान है। मन से, इस मन को छट्ठी इन्द्रिय माना जाता है और फिर बुद्धि से, बुद्धि भी वही की वही है। बुद्धि से जो कुछ जानता है, वह सारा अज्ञान है। वह सब ज्ञेय में आता है। अब बुद्धि को अज्ञा कहते हैं और शुद्धात्मा उसे प्रज्ञा से जानता है। अज्ञा ने जो किया है, उसे प्रज्ञा जाने, वह कहलाता है अंतिमज्ञान । कुछ किए बगैर तो रहेगा ही नहीं। अंदर ही अंदर, चंचलता रहती ही है। उसे जानता है कि खाते समय हमने बेकार की जिद पकड़ी है घर में, ऐसा आप जानते हो न, तो आप मुक्त। झक्की इंसान मार खाता है... झक्की इंसान तरछोड़ लगाकर उठ जाता है और जब भूख लगती है न, तो खुद को ही परेशानी ! प्रश्नकर्ता : लेकिन जब व्यवहार में अधिक व्यस्त हो जाते हैं, तब उस समय ऐसा कहते हैं न कि 'जैसे बीच में बस जा रही हो,' तो उस समय अतीन्द्रिय से देखने से काम चलता है या नहीं चलता? दादाश्री : किस तरह देखा जा सकता है लेकिन....बीच में अड़चन आ जाती है न?

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