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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
दादाश्री : वे भावकर्म हैं।
प्रश्नकर्ता : वे जो भावकर्म हुए, वे द्रव्यकर्म के निमित्त से होते हैं या द्रव्यकर्म वह करवाते हैं?
दादाश्री : नहीं, द्रव्यकर्म करवाते हैं 'उससे'। लेकिन 'वह' द्रव्यकर्म की कब नहीं मानेगा? जब 'खुद' ज्ञानी हो तब नहीं मानेगा।
प्रश्नकर्ता : अतः फिर मेरा शरीर अभी जो कुछ भी भोग रहा है....
दादाश्री : जो सुख-दुःख वह भोग रहे हो, वह सब नोकर्म है। इसीलिए हमें उसका समभाव से निकाल कर देना है, ये सभी जो कर्म आते हैं उनका। कड़वे-मीठे आते हैं उनका। अतः नोकर्म का अर्थ क्या हुआ?
अगर ज्ञानी होंगे तो उससे कर्म नहीं बंधेगे और अज्ञानी होंगे तो इन कर्मों में से वापस बीज डलेगा।
अहंकार पहने चश्मा प्रश्नकर्ता : आप्तसूत्र ३९६३ में है कि 'अहम का स्थान कब तक रहता होगा? कार्मण शरीर और शुद्धात्मा, इन दोनों के बीच में 'जो है वह' खत्म नहीं हो जाए तब तक रहता है।' यह ‘जो है वह' यह क्या है?
दादाश्री : वही अज्ञान है। वह अज्ञान रूपी पर्दा है। अगर अज्ञान नहीं रहे तो जीवित अहंकार पूरा खत्म हो जाएगा। तब फिर परछाई रूपी अहंकार बचेगा, ड्रामेटिकल। वह संसार चला लेता है। अतः अहंकार का ही मोक्ष करना है। मूल आत्मा तो मोक्ष में ही है न!
अज्ञान चला जाए तो सबकुछ चला जाएगा। आवरण दो प्रकार से हैं। अज्ञान रूपी जो पर्दा है, वह और दूसरा द्रव्यकर्म का आवरण है। द्रव्यकर्म तो रोज़ होते ही हैं लेकिन हमेशा रहनेवाले अज्ञान रूपी पर्दे की बात की गई है। द्रव्यकर्म तो कुछ हद तक ही हैं, उसमें कोई हर्ज नहीं है, चालीस-पचास साल के लिए है। उसके बाद वापस दूसरे बदलते रहते हैं जबकि भावकर्मवाला अज्ञान तो हमेशा के लिए हैं। द्रव्यकर्म तो ऐसी चीज़ है कि वह तो चश्मे के अलावा और कुछ नहीं है। वह कोई अज्ञानता नहीं