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[३.१] 'कुछ है' वह दर्शन, 'क्या है' वह ज्ञान
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प्रश्नकर्ता : सोचकर यानी क्या?
दादाश्री : सिनेमा देखते हैं, तब वह सब देखते ज़रूर है लेकिन अंदर किसी जगह पर ऐसा आए कि एक व्यक्ति छुरा लेकर उसके पीछे क्यों दौड़ा? क्या वह मार देगा उसे? वह जो है वह ज्ञेय कहलाता है और बाकी जो कुछ चला जाता है, वह दृश्य कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : कोई व्यक्ति छुरा लेकर आएयातो पहले हमने उसे देखा तो वह दृश्य है लेकिन अगर उसमें सोचा कि यह क्या करनेवाला है? तब वह दृश्य ज्ञेय बन जाता है, ठीक है?
दादाश्री : जब छुरा लेकर आए तभी अपना विचार उसमें घुस जाता है। विचार घुसा तभी से वह ज्ञेय है और विचार न आए और वह सहजरूप से चला जाए तो वे सभी दृश्य हैं।
प्रश्नकर्ता : इन चंदूभाई को किसी भी तरह की अकुलाहट होती है, परेशानी होती है तो उसे मैं देखता हूँ, तो इसमें ये दोनों, देखना और जानना, कैसे लागू होता है?
दादाश्री : आपको खुद को जब पहली बार ऐसा पता चला तो उसे देखना कहते हैं। जब तक नहीं जानते कि क्या है, तब तक सारा दर्शन है। अतः जब तक डिसीज़न नहीं आ जाए, तो वह 'देखना' है।
प्रश्नकर्ता : तो फिर जानना किसे कहते हैं?
दादाश्री : जानना, जब उसका अनुभव हो जाए तब। मोटे तौर पर पता हो, तब तक उसे देखना' कहते हैं। डिसाइडेड हो जाए, तब 'जानना'। ज़्यादातर तो सभी कुछ 'देखने' में ही जाता है। 'जानने' में कम होता है। ज़्यादा कुछ डिसाइड नहीं हो पाता न।
प्रश्नकर्ता : 'जानना' कब होता है? डिसाइड कब होता है? दादाश्री : 'जानना' तो हमें अनुभव हो उसे जानना कहते हैं। लोग नहीं कहते, 'यह दवाई लगाते हुए कितने दिन हो गए?' तब