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[३.२] दर्शन सामान्य भाव से, ज्ञान विशेष भाव से
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तो बहुत विभाजन करता है। नहीं?! 'इसे मगस (बेसन की मिठाई) कहते हैं, यह गोंदपाक कहलाता है, यह जोड़ों को मज़बूत करता है,' ऐसा कहेगा। जानने गया।
प्रश्नकर्ता : उससे ज्ञान बढ़ता है न फिर। जानने जाए तो ज्ञान बढ़ता है न उसका।
दादाश्री : कैसा ज्ञान बढ़ता है? सफोकेशन होता है। यह सब कैसा ज्ञान? यह ज्ञान कहलाता ही नहीं है न? डिटेल्स जानने गया। खुद को जानना, वही ज्ञान कहलाता है, और यह पराया है, ऐसा जानना उसे ज्ञान कहते हैं। बस खुद का और पराया उसे जानें वह ज्ञान कहलाता है। ज्ञान अंदर विभाजन कर देता है, यह पराया और यह खुद का। दर्शन अंदर देखता रहता है, बस। अगर उसे जानने निकले तो फिर डिटेल्स में उतरता है। विवरण सहित, डिटेल्स में जाता है। यह क्या है? यह क्या है? यह क्या है? विस्तार से अर्थात् फिर आत्मा विस्तार से उतरता है उसमें, दर्शन में उतरता है, ज्ञान में उतरता है, फिर चारित्र में उतरता है और विवरण में उतरता है।
प्रश्नकर्ता : वह नहीं समझ में आया, दादा। क्या कहा? आत्मा ज्ञान में उतरता है, दर्शन में उतरता है?
दादाश्री : लोग सिर्फ दर्शन को ही स्वीकार करके आगे बढ़ते रहते हैं और पूरा आत्मा, वहाँ पर आत्मा तो सिर्फ दर्शन स्वरूप नहीं है न, ज्ञानदर्शन-चारित्र सभी के सम्मिलित स्वरूप से है। लोग कब तक अलगअलग समझते हैं, जब तक खुद का संपूर्ण अनुभव नहीं हुआ है तब तक। वह होने के बाद अलग देखने को नहीं रहता लेकिन अपना अक्रम विज्ञान है इसीलिए वह (अनुभव) कच्चा है न थोड़ा, दूसरा भरा हुआ माल है इसलिए फिर वापस अलग-अलग देखने निकलता है, 'यह क्या है? वह क्या है?'
प्रश्नकर्ता : नहीं। मतलब की यह चीज़ है इसे देखना और जानना है न, अर्थात् जानपना, आपने उदाहरण दिया कि यह नीम है, यह पीपल है और यह आम है, उसी प्रकार इसमें जानपना (ज्ञान) क्या होता है?