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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
प्रश्नकर्ता : फॉरेन में चला जाए तो उसके क्या लक्षण होते हैं?
दादाश्री : बैचेनी होती है। सफोकेशन होता है, बाहर निकला कि तुरंत ही जानने में पड़ जाता है । देखने में रहे तो खुद के ऑफिस में रहकर देख सकता है और जानने लगे तो बाहर आना पड़ता है। अरे, अभी यह जानकर तुझे क्या करना था ? वही परेशानी है न सारी । विस्तारपूर्वक जानने निकला, इन डिटेल्स। तब कहता है, 'मुझे तो जानना है, डिटेल्स में क्या है।' ‘अरे भाई लेकिन डिटेल्स को छोड़ न ! यह सबकुछ बेकार है । आग लगा दे एक तरफ से । '
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प्रश्नकर्ता : उस जाननेवाले पर उपयोग रहता है? ऐसा खुद देख सकता है कि वह जानने गया या इस तरफ गया?
दादाश्री : हाँ, ऐसा हो सकता है लेकिन वह पूरी तरह से नहीं रहता क्योंकि खुद जानने में पड़ा है न! 'यह क्या है? यह क्या है?' ऐसा जानने जाता है इन डिटेल्स | वह डिटेल्स नहीं जाने तो नहीं चलेगा?
प्रश्नकर्ता : चलेगा। ज़रूरत भी क्या है ? ज़रूरत ही नहीं है ।
दादाश्री : लेकिन वह जो बुद्धि है न, वह डिटेल्सवाला ढूँढती है। प्रश्नकर्ता : आपका जानना कैसा होता है? आप जानने की क्रिया में पड़ते हो?
दादाश्री : जानने के बाद हमें अब और क्या जानना रहा? सबकुछ जानकर बैठे हैं। यह पत्नी का भाई है, यह मेरा साला ही है । इसमें नया क्या है जानने को? फिर जो बाकी रहा उसे बार- बार क्या जानना है?
प्रश्नकर्ता : यानी कि जानने तक खुद को बाहर रहना पड़ता है?
दादाश्री : सफोकेशन होता है । जितना बाहर रहे, उतना सफोकेशन, घबराहट होती है । विस्तारपूर्वक जानने गया। ये बैंगन कहाँ के हैं? ये बैंगन कहाँ के हैं? अरे, छोड़ न इन्हें ! ये सारे बैंगन हैं । सब पुद्गल की बाज़ी है। बहुत ज़्यादा डिटेल्स में जाकर क्या करना है? तू