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[२.१४] द्रव्यकर्म + भावकर्म + नोकर्म
है। वह तो चश्मा है, जैसा पहने वैसा ही दिखता है । पीला पहने तो पीला दिखता है।
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प्रश्नकर्ता : उन्हें पहननेवाला कौन है ?
दादाश्री : अहंकार।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् ऐसा है कि अहंकार के ऐसे चश्मे होते हैं?
दादाश्री : चश्मे अवश्य पहनने ही पड़ते हैं । तब ‘उसे' (अहंकार को) जो दिख रहा था, वह फिर उल्टा दिखने लगता है । उल्टा दिखने लगता है । इसलिए फिर उल्टा चलता है।
दृष्टि बदली द्रव्यकर्म से
अब, द्रव्यकर्म क्या है कि आँखों पर पट्टियाँ बंधवाकर यह सब दिखाता है। अतः 'दृष्टि' बदल जाती है। वह सब द्रव्यकर्म से है । दृष्टि बदल जाती है इसलिए यह शरीर बना । यह शरीर जो बना है, वह द्रव्यकर्म के अधीन ही बना है।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान से पहले हम जिस दृष्टि से जगत् को देखते हैं, वह दृष्टि क्या वही द्रव्यकर्म के चश्मे हैं ?
दादाश्री : द्रव्यकर्म के आधार पर ही वह 'दृष्टि' है और उस दृष्टि से हम उल्टे चले हैं लेकिन उसका आधार द्रव्यकर्म है । उस दृष्टि को द्रव्यकर्म नहीं कहते । ये आप जिसे चश्मे कहते हो न, वे ही द्रव्यकर्म कहलाते हैं और वही ठीक है ।
नोकर्म अर्थात् डिस्चार्ज होते हुए कर्म और भावकर्म अर्थात् चार्ज होते कर्म। बीच में द्रव्यकर्म खत्म नहीं हो जाते। हम उल्टी 'दृष्टि' निकाल देते हैं। इसलिए वह (मूल) दृष्टि दूसरी तरफ नहीं जाती है, द्रव्यकर्म में । वह उल्टी 'दृष्टि' चली ही जाती है ।
प्रश्नकर्ता : श्रीमद् राजचंद्र का वचनामृत है न, उसमें ये तीन डेफिनेशन ऐसे दी हैं कि जो भावकर्म हैं न, भावकर्म जो बंधते हैं, उनका