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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
नोकर्म और द्रव्यकर्म से रहित हुआ ही नहीं जा सकता। सम्यक् दृष्टि हो नहीं पाती न! वह मिथ्या दृष्टि बदलती नहीं है। जब तक मिथ्या दृष्टि नहीं बदलती तब तक कुछ भी नहीं हो सकता। यह मिथ्या दृष्टि, वह सांसारिक दृष्टि है। जो सम्यक् दृष्टि है, वह आत्म दृष्टि है। वह दृष्टि अलग है। सम्यक् दृष्टि होने के बाद भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म सबकुछ अलग-अलग हो जाता है और फिर छूट जाता है। फिर अलग ही रहा करता है। कर्म बंधन रुक जाता है।
रखो लक्ष में चश्मे, खुद और बाहरी चीजें
दो चीजें साथ में रखने से, दोनों खुद के गुणधर्म में रहकर एक तीसरा गुण उत्पन्न हो जाता है, व्यतिरेक गुण। उस व्यतिरेक गुण से चश्मे बनते हैं।
आत्मा स्वभाव में ही है लेकिन धुंध बहुत है इसलिए दिखाई नहीं देता। धुंध चली जाए तो दिखाई देगा। द्रव्यकर्म धुंध जैसा है। धुंध में से बाहर निकलने के बाद भी कितने ही समय तक 'उस' पर असर रहता है। 'ज्ञानी' उससे छुड़वा देते हैं।
जो अगले जन्म के बीज डालते हैं, वे भावकर्म हैं। वे कर्म जो बीज रहित हैं, वे नोकर्म हैं। और द्रव्यकर्म क्या हैं? वह पिछले जन्म के कौन से चश्मे लाया है? चार नंबर के, आठ नंबर के या बारह नंबर के चश्मे हैं? जैसे चश्मे लाया है, उसी से पूरी जिंदगी दिखाई देता है। जैसे चश्मे लेकर आया होता है, उसी अनुसार सूझ पड़ती है।
द्रव्यकर्म में शक्तियाँ भी लाया है। आत्मा में अनंत शक्तियाँ हैं लेकिन उनमें अंतराय डालनेवाली शक्तियाँ भी लेकर आया है। इसके अलावा मूर्छित भाव व मोह लाया है।
पीले चश्मे चढ़ाए तो दुनिया पीली दिखाई देती है। इन चश्मों के बारे में पता है, इसलिए समझ जाता है कि इन चश्मों की वजह से पीला दिख रहा है! ये पूर्वजन्म के द्रव्यकर्म के चश्मे चढ़ाए हैं, उसी कारण ऐसा सब दिखाई देता है! यदि चश्मों का लक्ष (जागृति) रहे, खुद