________________
[२.१४] द्रव्यकर्म + भावकर्म + नोकर्म
३२९
रहे ही नहीं। आप चाहे जो करो फिर भी आपको भावकर्म नहीं होंगे क्योंकि दादा की आज्ञा का पालन करते हो। भावकर्म का मतलब क्या है? अच्छा करो तो भी भावकर्म, गलत करो तो भी भावकर्म। अब जब तक कर्ता है तब तक भावकर्म हैं। जितना भी डिस्चार्ज है वह सारा नोकर्म है, जो चार्ज है वह भावकर्म है।
प्रश्नकर्ता : यों दिखता भावकर्म जैसा है लेकिन फिर भी उसमें खुद एकाकार नहीं होता और डिस्चार्ज हो जाता है इसलिए नोकर्म हो गया?
दादाश्री : इसीलिए नोकर्म। बाहर के लोग (जिन्हें ज्ञान नहीं मिला है) अंदर उनमें एकाकार रहते हैं, इसलिए भावकर्म हो जाता है।
क्रोध की इतनी सारी अग्नि कहाँ से लाया? परमाणु के रूप में थे ही वे। स्थूल हुआ न, बाहर निकला इसलिए नोकर्म हो गया। अंदर जो है उसके 'आप' मालिक हो, ज़िम्मेदार हो आप। बाहर जो निकला उसके अगर मालिक नहीं बनो तो कुछ भी नहीं है। क्रोध-मान-माया-लोभ हो रहे हों और उसका मालिक नहीं बना तो कुछ भी नहीं।
प्रश्नकर्ता : यह मालिक नहीं बनना, वह क्या है?
दादाश्री : मालिक नहीं बनना, वह तो ज्ञान है। 'मैं खुद कौन हूँ' इसका भान रहता है न! तो क्रोध का मालिक क्यों बन जाता है? अज्ञानता से। नासमझी से। मालिक है नहीं और मालिक हूँ ऐसा मान बैठते हैं। बाहर के (जिन्होंने ज्ञान नहीं लिया) लोग मालिक हैं। वे वास्तव में मालिक हैं। वैसा तो दिखाई ही देता है न, श्रीमंत ही दिखाई देते हैं न!
प्रश्नकर्ता : यानी वास्तव में 'मालिक' भी मानी हुई दशा ही है न? दादाश्री : वे वास्तव में मालिक ही हैं। प्रश्नकर्ता : वह किस तरह?
दादाश्री : अगर माना नहीं होगा तो चिंता और जलन नहीं होगी। मालिक ही हैं। अतः किसी को ज्ञान नहीं है तो वह मालिक ही माना जाएगा