________________
मेहनत बेकार जाती है। ज्ञानी तो क्या कहते हैं कि किसी भी तरीके से मात्र दृष्टि बदल लो।'
दृष्टि बदल जाए तो सारे आश्रव, परिश्रव (निर्जरा) हैं। उसके बाद बंध नहीं पड़ता।
अक्रम में तो 'यह मेरा है ही नहीं' ऐसा हो जाता है। कषाय, 'चंदू' के। अहंकार मृतपाय हो जाता है और अंदर सौ प्रतिशत ऐसा हो जाता है कि 'मैं' तो शुद्धात्मा। पूरी दृष्टि ही बदल जाती है।
क्रमिक में जिसे लिंग-देह कहते हैं, उसे अक्रम में भावकर्म कहते हैं। द्रव्य कर्म में से भावकर्म और भावकर्म में से द्रव्य कर्म । दादाश्री ज्ञान देते ही इस श्रृंखला तोड़ देते हैं। उसके बाद नए भावकर्म नहीं बंधते। पिछले दैहिक कर्म पूरे करने बाकी रहते हैं और कुछ अंशों तक ज्ञानावरण और अंतराय रहता है।
तीर्थंकर पूर्वजन्म में तीर्थंकर गोत्र बाँधते हैं। वह समकित होने के बादवाला भावकर्म है। 'जो सुख मैंने प्राप्त किया वे सभी पाएँ।' ऐसी उनकी सहज करूणा रहती है! भावकर्म संपूर्ण रूप से खत्म होने के बाद केवलज्ञान होता है।
[२.१३ ] नोकर्म नोकर्म तो, अगर आत्मज्ञान हो तो उनका असर नहीं होता, नहीं तो असर होता ही है। नोकर्म अर्थात् 'नो', NO - नो नहीं।
ज्ञानी के और अज्ञानी के नोकर्म एक जैसे ही दिखाई देते हैं लेकिन ज्ञानी में कर्तापन नहीं होता, भावकर्म नहीं होता इसलिए नोकर्म में से नया चार्ज नहीं होता, वे झड़ जाते हैं। इसमें मुख्यतः सम्यक् दृष्टि ही काम करती है। दृष्टि बदल गई, इसलिए नोकर्म हैं। डिस्चार्ज हैं।
नोकर्म अर्थात् क्या? जो पाँच इन्द्रियों से अनुभव किए जा सकते हैं। जो मन से होते हैं, वे भी नोकर्म हैं। मन उसका प्रेरक है। क्रोध-मानमाया-लोभ निकाल दें तो जो बचे, वे सभी नोकर्म हैं। मन-बुद्धि-चित्त
57