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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
है। मूल चीज़ ऐसी नहीं होती। इसीलिए 'उसे' भावकर्म उत्पन्न होते हैं और उस भावकर्म से वापस क्या होता है? भावकर्म व नोकर्म के मिलने पर फिर वापस से द्रव्यकर्म उत्पन्न होता है। अतः कारण में से कार्य और कार्य में से वापस कारण। कार्य-कारण की श्रृंखला है यह सारी।
भावकर्म के परिणाम स्वरूप द्रव्यकर्म और उसमें से नोकर्म
अतः भावकर्म की माँ (ओरिजिनल, मूल महाकारण) द्रव्यकर्म है, भावकर्म यदि बेटा है तो उसकी माँ कौन है? तो वह है द्रव्यकर्म। तो कहते हैं (ऑरिजिनल-मूल) द्रव्यकर्म अगर बेटा है तो उसकी माँ कौन है? तो वह है साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स। यह बात इनकी पीढ़ी तक की ही है। साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स के बाद वे द्रव्यकर्म बने और द्रव्यकर्म में से भावकर्म बने बगैर रहते ही नहीं। और फिर इन भावकों का परिणाम क्या है? तो वह ऐसा है कि भावकर्म के परिणाम स्वरूप द्रव्यकर्म बनते हैं और द्रव्यकर्म में से जो फल उत्पन्न हुए वे सभी नोकर्म हैं। अतः द्रव्यकर्म अर्थात् यह शरीर मिला और ये पट्टियाँ उत्पन्न हुई। पट्टियाँ अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय, और फिर यह देह अर्थात् नाम, आयुष्य, गोत्र और वेदनीय। 'हमने' जो भी कर्म किए हैं, उनके फल स्वरूप यह शरीर मिला। अब देह और मन-वचन-काया के जो सभी कर्म भुगतने पड़ते हैं, वे हैं नोकर्म।
प्रश्नकर्ता : शरीर द्रव्यकर्म का साधन है या द्रव्यकर्म है?
दादाश्री : शरीर द्रव्यकर्म है और वह भावकर्म का साधन है। द्रव्यकर्म का मतलब क्या है? परिणाम। देहाध्यास सहित भावकर्म, उनमें से द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं। उससे फिर शरीर बनता है। शाता वेदनीय होती है, अशाता वेदनीय होती है और उल्टे पट्टे बंधते हैं। यानी कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय, सभी कुछ इसमें आ गया है, द्रव्यकर्म में।
नहीं है भावकर्म स्वसत्ता में अतः द्रव्य में से वापस भाव और भाव में से द्रव्य। द्रव्य में से भाव