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[२.१४] द्रव्यकर्म + भावकर्म + नोकर्म
त्रिकर्मों में खुद का कर्तापन कितना? प्रश्नकर्ता : तो भावकर्म किस प्रकार से नोकर्म से अलग हैं? इसे विस्तारपूर्वक समझाइए न!
दादाश्री : हाँ, वह समझाता हूँ। वह बहुत समझने जैसी चीज़ है।
इन तीनों कर्मों को मिलाकर है यह सब, जिसे लोग कहते हैं न कि 'कर्म बाँध रहा हूँ,' तो वे ये तीनों हैं उसके अगल-अलग विभाग बनाए हैं।
भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म - इन तीन कर्मों की वजह से ही संसार खड़ा है। ये तीनों कर्म चले जाएँ तो खत्म हो जाएगा। तीन प्रकार के कर्म हैं। इससे अलग चौथे प्रकार का कर्म है ही नहीं। इनमें से भी द्रव्यकर्म खुद के हाथ की सत्ता नहीं है। द्रव्यकर्म परिणाम हैं और नोकर्म भी परिणाम हैं। लेकिन द्रव्यकर्म का तो बिल्कुल भी कर्ता नहीं है, और नोकर्म का तो खुद कर्ता या अकर्ता दोनों ही हो सकता है। अज्ञान दशा में नोकर्म का कर्ता बनता है और ज्ञान दशा में अकर्ता लेकिन मुख्य काम कौन से कर्म करते हैं? भावकर्म। वह अज्ञानता में भावकर्म का कर्ता बनता ही है। यदि क्रोधमान-मान-माया लोभ नहीं हों, यदि वे चले जाएँ तो बस हो चुका, मुक्ति।
प्रश्नकर्ता : अतः भावकर्म और द्रव्यकर्म इन दोनों के बीच में कोई भेदरेखा नहीं है?
दादाश्री : द्रव्यकर्म अलग चीज़ है, द्रव्यकर्म अर्थात् अगर पीली पट्टियाँ हों तो पीला दिखता है, अगर लाल पट्टियाँ हों तो लाल दिखता