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[२.३] दर्शनावरण कर्म
१५१ प्रकार के आवरण नहीं होते। आवरण अर्थात् आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर स्टेशन तक जाना। ऐसा अच्छा है या पट्टियाँ बाँधे बिना जाना अच्छा?
प्रश्नकर्ता : पट्टियाँ बाँधे बिना जाना ज़्यादा अच्छा है।
दादाश्री : ये सब पट्टियाँ बाँधकर घूम रहे हैं और पट्टियाँ बाँधकर व्यापार शुरू किया है और फिर नहीं दिखने की वजह से ये टकराते रहते हैं। तब कहते हैं, आँखों से तो दिख रहा है! अरे, यह देखना नहीं है! यों जो टकरा जाता है, वह नहीं दिखने की वजह से है। कोई भी टकराव होता है तो वह नहीं दिखने की वजह से है, नहीं जानने की वजह से है।
प्रश्नकर्ता : उसे आपने दर्शनावरण कहा है न?
दादाश्री : दर्शन और ज्ञान-आवरण। दर्शन-आवरण से सूझ नहीं पड़ती। कई लोग कहते हैं न कि सूझ नहीं पड़ती।
प्रश्नकर्ता : हाँ, हाँ ठीक है।
दादाश्री : वह दर्शन का आवरण है और कुछ देर तप करने से वह आवरण हट जाता है। तब कहता, 'मुझे सूझ पड़ी।'
सूझ, ही दर्शन है अंदर सूझ पड़ना या न पड़ना, उसे दर्शनावरण कर्म कहा जाता है। कुछ लोग उलझते (कन्फ्यूज़) ही रहते हैं। एक बहन जी से कहा हो कि 'दाल-चावल-कढ़ी-पूड़ियाँ-खीर वगैरह बना दो।' पकौड़े वगैरह सबकुछ
डेढ़ घंटे में तैयार कर देती है और दूसरी कोई बहन जी तीन घंटे तक उलझन में पड़ जाती है। वह क्यों उलझन में पड़ जाती है? सूझ नहीं पड़ती है। देखो कोई बुरा मत मानना, हं!
प्रश्नकर्ता : सूझ पड़ने को द्रव्यकर्म कहा है आपने?
दादाश्री : सूझ पड़ना भी द्रव्यकर्म है और नहीं पड़ना, वह भी द्रव्यकर्म है क्योंकि यदि नापसंद मेहमान आएँ और उसमें आप सहमत हो जाएँ कि बहुत अच्छा हुआ,' तो आपको ज़्यादा सूझ पड़ेगी। और अगर