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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
होती है। अंतराय टूटने से खुद की इच्छानुसार मिलता है। हमें क्यों एक भी अंतराय नहीं है? क्योंकि हमारी संपूर्ण निरीच्छक दशा है।
मनुष्य तो परमात्मा ही है। अनंत ऐश्वर्य प्रकट हो सके, ऐसा है। इच्छा की कि मनुष्य हो गया। नहीं तो ऐसा है कि 'खुद' जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है लेकिन अंतरायों की वजह से प्राप्त नहीं कर सकता। भगवत् शक्ति में जितने अंतराय पड़ते हैं, वह शक्ति उतनी ही रुक जाती है, आवृत हो जाती है। वर्ना भगवत् शक्ति अर्थात् जो भी इच्छा की जाए, वह हर एक चीज़ सामने आ जाए। उसमें जितने अंतराय डालता है, शक्ति उतनी ही आवृत हो जाती है।
हममें इच्छा जैसी चीज़ है ही नहीं। इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं, एक डिस्चार्ज इच्छा और एक चार्ज इच्छा। चार्ज इच्छा, जिससे कि नया हिसाब बंधता है। डिस्चार्ज अर्थात्, अगर अभी भूख लगी हो तब अगर वह व्यक्ति ऐसे देखे तो हम जान जाते हैं कि इस भाई को इच्छा हो रही है लेकिन यह डिस्चार्ज इच्छा कहलाती है। हमें अगर कोई ऐसी डिस्चार्ज इच्छा हो जाए, तब वह चीज़ सामने से आ जाती है। हमें प्रयत्न नहीं करना पड़ता। अंतराय इतने टूट गए हैं कि हर एक चीज़ आ मिलती हैं। हर एक चीज़ इच्छा होते ही आ मिलती है। यह निरअंतराय कर्म कहलाता है।
अनिश्चय से अंतराय, निश्चय से निरंतराय मोक्षमार्ग में तो, जब अंतराय आते हैं तब खुद की शक्तियाँ और भी अधिक प्रकट होती जाती हैं। अतः अगर उसमें अंतराय आएँ, तब भी हमें अपना निश्चय दृढ़ रखना चाहिए कि 'किसी की ताकत नहीं है जो मुझे रोक सके,' ऐसा भाव रखना है। मुँह पर नहीं बोलना है, बोलना तो अंहकार है। अंतराय अहंकार की वजह से डलते हैं कि 'मैं कुछ हूँ।'
प्रश्नकर्ता : अंतराय अपने आप ही टूट जाते हैं या पुरुषार्थ से टूटते
दादाश्री : अतंराय अर्थात् अनिश्चय। इंसान का पुरुषार्थ कहाँ गया? पुरुषार्थ धर्म खुल्ला है।