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[२.६] वेदनीय कर्म
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भोगता है। उसे भी वे खुद जानते ही थे। उस शाता वेदनीय में वे रस (रुचि) नहीं लेते थे इसलिए अशाता में भी उन्हें कोई रुचि नहीं रहती। वह तो सिर्फ उनके ज्ञान में ही रहता है। वेद अर्थात् वेदन करना, दुःख भोगना और जानना। वेद अर्थात् 'टू नो,' जानना। वेद का अर्थ है दुःख को भोगने से लेकर जानने तक। जितने-जितने ग्रेडेशन (सोपान) होते हैं, उतने ग्रेडेशन।
उस घड़ी तप रहता है उन्हें, ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप, लेकिन वह भी सिर्फ केवलज्ञान होने तक। केवलज्ञान होने के बाद तो कुछ भी नहीं रहता। एब्सोल्यूट हो गया। एब्सोल्यूट को कुछ स्पर्श ही नहीं करता। महावीर भगवान को जब तक केवलज्ञान नहीं हुआ था, तभी तक उन पर वेदना पड़ी।
प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा कहते हैं न कि केवलज्ञान होने के बाद भी उन्होंने वेदना और कष्ट तो कईं सहन किए थे!
दादाश्री : वे सभी कष्ट शरीर को हुए थे, शरीर को शाता-अशाता रहती थी लेकिन उन्हें स्पर्श नहीं होता था। उन्हें तप नहीं करना पड़ता था। उन्हें सहज ही ज्ञान-दर्शन व चारित्र रहते थे।
अभी तो आपके मानसिक दुःख भी मिट गए हैं लेकिन देह के दुःख तो आपको स्पर्श करते हैं। दाढ़ दु:खने लगे या सिर दुःखने लगे तब, आपको असुख हुए बगैर नहीं रहता क्योंकि फिज़िकल बॉडी है। जब तक केवलज्ञान नहीं हो जाता, तब तक एब्सोल्यूट हो ही नहीं सकता।
प्रश्नकर्ता : जो भोगवली कर्म (भोगने ही पड़े ऐसे अनिवार्य कर्म) हैं वे तीर्थंकरों को भी नहीं छोड़ते, तो वे कैसे कर्म हैं?
दादाश्री : किसी को भी नहीं छोड़ते।
प्रश्नकर्ता : तीर्थंकर गोत्र बाँधते हैं और साथ में भोगवली कर्म भी बाँधते हैं?
दादाश्री : हाँ, उसमें तो कुछ चलेगा ही नहीं न! या तो शाता, या अशाता। तीर्थंकरों को शाता और अशाता दोनों ही होते हैं। दोनों ही उदय