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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
अच्छा लगा, अच्छा है, ऐसा है, वैसा है, मुझे अच्छा लगता है, ऐसा कहते हो फिर भी ज्ञानवाले को कर्म नहीं बंधते, इसे कहते हैं नोकर्म।
प्रश्नकर्ता : ठीक है। अब आपने हमारे भावकर्म खत्म कर दिए हैं। दादाश्री : हाँ, भावकर्म खत्म कर दिए हैं। प्रश्नकर्ता : इसलिए हम में चारों ही कषाय नहीं रहे।
दादाश्री : चार्ज कषाय बिल्कुल भी हैं ही नहीं, डिस्चार्ज कषाय बचे हैं और शुद्ध आत्मा रख दिया है।
किसी को धौल लगाना भी नोकर्म है। क्रोध के बगैर कोई भी व्यक्ति किसी को धौल लगा सकता है क्या? बाप बेटे को धौल लगा सकता है? अब यह धौल नोकर्म है। यदि क्रोध हो रहा हो तो भावकर्म है। दोनों भाग अलग हो जाते हैं।
। अभी ये भाई आपको धीरे से एक धौल लगा दें और लोग मुझसे आकर कहें कि 'इसे क्या कहा जाएगा?' तब मैं कहूँगा कि 'यह इनका सिर्फ नोकर्म ही है।' तब अगर वह पूछे कि 'उस घड़ी वे उग्र हो गए थे, फिर भी?' फिर भी वह भावकर्म नहीं है क्योंकि मैंने ज्ञान दिया है और क्रोध-मान-माया-लोभ डिस्चार्ज स्वरूपी हो गए हैं। अगर चार्ज स्वरूपी होते तब वापस नया कर्म बाँधते। अतः यह बहुत समझने जैसा है। इस विज्ञान को अगर समझ जाए न तो हल आ जाएगा।
क्रियामात्र नोकर्म है क्रिया को नोकर्म कहा गया है। क्रिया नहीं चिपकती है, उपयोग संसार का होगा तो यह चिपकेगी और अगर आपकी दृष्टि आत्मा की तरफ होगी तो नहीं चिपकेगी, ऐसा कह रहे हैं। यह इस पर आधारित है कि 'दृष्टि' किस तरफ है।
इस शरीर से दिखनेवाले, इन्द्रियों से खाते-पीते हुए, जाते-आते हुए, रहते हुए, नौकरी करते हुए, पैर छूते हुए, यह जो कुछ भी दिख रहा है न,