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[२.१३] नोकर्म
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अब क्रमिक मार्ग में नोकर्म अलग तरह के हैं। उसमें तो नौ प्रकार के नोकर्म बताए गए हैं। वे हैं रति, अरति, हास्य, भय, जुगुप्सा, शोक, पुरषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद। जबकि हमने यहाँ तो चाहे व्यापार किया, उल्टा किया या स्त्री विषय सभी कुछ नोकर्म में रख दिया।
प्रश्नकर्ता : जुगुप्सा अर्थात् घृणा भाव या धिक्कार भाव या घिन?
दादाश्री : घिन आती है। घिन में तिरस्कार नहीं है। तुझे ये हो रहा है, फिर भी हम उसे नोकर्म कहते हैं। वे राग-द्वेष नहीं हैं। गंदगी में पैर पड़ जाए तो मुँह वगैरह बिगड़ जाता है। अरे भाई, एरंडी का तेल पिए जैसा मुँह क्यों हो गया? एरंडी के तेलवाले मुँह से भी बदतर है। भगवान कहते हैं, 'हम उसे कर्म नहीं कहते।' ऐसा होने के बाद वह उन सभी के साथ झगड़ा करे तो बंधता है।
फिर कोई व्यक्ति ऐसा-ऐसा कर रहा हो, तो उसमें किसी को नवीनता लगे और वह हँस पडे, तो यदि उसमें दोष न करें तो उस हास्य को निर्दोष मानते हैं। अतः अपने महात्माओं को वे बाधक नहीं हैं न! अपने महात्मा फिर से छेड़ते करते ही नहीं हैं न! समभाव से निकाल ही कर देते हैं न! हँसते ज़रूर हैं, हँसी-मज़ाक भी करते हैं। मज़ाक हास्य में आता है, उसमें राग-द्वेष के परिणाम नहीं हैं।
उन सभी नौ के नौ कर्मों में राग-द्वेष रहित रह सकते हैं, इसीलिए इन्हें नोकर्म कहा है। कैसे समझदार लोग हैं ये! ऐसा कहनेवाले कितने समझदार हैं!
प्रश्नकर्ता : दादा, भय किस प्रकार से राग-द्वेष रहित रह सकता है?
दादाश्री : भय राग-द्वेष रहित ही रह सकता है, उसका मैं उदाहरण देता हूँ। इन्हें ज्ञान दिया है। ये यहाँ पर विधि कर रहे हैं, 'मैं शुद्धत्मा हूँ, शुद्धात्मा हूँ' बोल रहे हैं और उस तरफ कहीं कुछ नई ही तरह का धमाका हुआ तो उनका पूरा शरीर काँप जाता है, उसे मैं भी जानता हूँ। यह इनका भय है लेकिन बाहरी भय को भड़काहट कहा जाता है। अंदरुनी भय को भय कहते हैं। सिर्फ यह भड़काहट ही हुई है, भय नहीं हुआ।