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[२.१३] नोकर्म
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'आपकी' 'दृष्टि' बदली हुई होगी, सम्यक् दृष्टि हो गई होगी, तो आपको इस तरह से कर्म नहीं बंधेगे और यदि यही दृष्टि रहेगी तो बंधेगे। अतः भगवान ने इसे नोकर्म कहा है।
__नोकर्म, वे इन्द्रियगम्य हैं नोकर्म का मतलब क्या है कि ये आँखों से देखे जा सकते हैं, कानों से सुने जा सकते हैं, जीभ से चखे जा सकते हैं, अत: इस जगत् में जितनी भी चीजें पाँच इन्द्रियों से अनुभव की जा सकें और मन से जो होता है वे सभी नोकर्म हैं। इसमें मन तो इनका प्रेरक है। फिर जितना भी बुद्धि से, चित्त से और अहंकार से अनुभव होता है न, वे सभी नोकर्म हैं। भावकर्म को घटा (माइनसकर) दें, क्रोध-मान-माया-लोभ को घटा दें तो बाकी के सभी नोकर्म हैं। और क्रोध-मान-माया-लोभ स्थूल हैं नहीं। सूक्ष्म चीज़ है। अंदर गुस्सा करता है, तो वह क्रोध नहीं है। गुस्सा तो परिणाम है। ये सब जितने भी कर्म दिखाई देते हैं और अनुभव किए जा सकते हैं, वे सभी नोकर्म ही हैं। पूरा जगत् नोकर्म पर ही बैठा हुआ है। लेकिन इतने भर से ही लोगों के कर्म नहीं बंधते इसलिए मैं कह देता हूँ कि भावकर्म के अलावा बाकी के सभी नोकर्म हैं। यह पूरी तरह से समझ में नहीं आ सकता।
प्रश्नकर्ता : नोकर्म किसे कहते हैं, उसका उदाहरण दीजिएन न।
दादाश्री : ये सभी कर्म जो हैं वे नोकर्म हैं। आप यहाँ पर आए, उतरोगे-चढ़ोगे, आओगे-जाओगे, खाओगे-पीओगे, व्यापार वगैरह सबकुछ नोकर्म हैं। जिसमें क्रोध-मान-माया-लोभ नहीं होते, वे सभी नोकर्म। अब व्यापार में यदि आपको लोभ है तो वह नोकर्म नहीं कहलाएगा। अगर उसमें लोभ रहा हुआ होगा तो।
प्रश्नकर्ता : नोकर्म का एक उदाहरण दीजिए न, यह सब किस तरह से होता है?
दादाश्री : अगर आपको कोई मीठी चीज़ पसंद हो और आप उसे खाते हो, फिर भी वह नोकर्म है। आपको कोई भी कर्म नहीं बंधता। बहुत