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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
बोलनेवाले तो अक्लमंद होंगे, थोड़े अक्लमंद होंगे लगता है, नहीं? कितनी अक्लमंदीवाली बात! इन दोनों को ही कर्म कहा है, नोकर्म । नोकर्म आपके भी है और इनके भी। नोकर्म एक समान (सरीखे) ही दिखते हैं! अब इन्हें इस चीज़ का कैसे पता चले कि इनमें यह नहीं उगेंगे और इनमें उगेंगे! इन लोगों को खबर ही नहीं है न! इतनी अक्ल होती तो ऐसी खोज करने जाते! आज के लोगों में ऐसी अक्ल तो होती नहीं, मुझे लगता है!
प्रश्नकर्ता : दादा यह तो बहुत डीप समझ है, यह तो बहुत गहरी समझ है, फिर खोज हुई होगी न?
दादाश्री : नोकर्म। पूरे जगत् के लोगों में ये कर्म उगेंगे। ये सब नोकर्म हैं। फिर भी नोकर्म इसलिए कहते हैं कि 'भाई, ज्ञानी लोगों में ये नहीं उगते, कर्म तो एक जैसे ही दिखाई देते हैं! यानी कि दिखते इसके जैसे ही हैं, कोई बदलाव नहीं दिखता उसमें लेकिन भगवान कहते हैं कि हमें इसमें कोई बदलाव नहीं देखना है। यह ज्ञान सहित है इसीलिए इनमें नहीं उगेंगे और आपमें उगेंगे बस इतना ही है। हमें यह देखने की ज़रूरत नहीं है कि इनमें कोई बदलाव होता है या नहीं।
प्रश्नकर्ता : इसमें ज्ञानी को कर्तापन नहीं है?
दादाश्री : नहीं है। इसीलिए नहीं उगते न! कर्म तो दोनों के वैसे ही दिखाई देते हैं, ये भी डाँट रहे होते हैं और वे भी डाँट रहे होते हैं। तो देखनेवाला तो यही समझता है कि यह भी डाँट रहा है और वह भी डाँट रहा है, तो उसमें फर्क ही क्या है? तब कहते हैं, 'नहीं बहुत बड़ा फर्क है।' यह वीज़ावाला है और यह बिना वीज़ावाला है। वीज़ावाले को अंदर बैठने देते हैं और बिना वीज़ावाले को वापस निकाल देते हैं।
प्रश्नकर्ता : तो दादा, जहाँ पर साथ में अहंकार नहीं हो अर्थात् जो सहज ही हो जाते हैं, उन्हें नोकर्म कहते हैं।
दादाश्री : जब तक 'मैं चंदूभाई हूँ' तब तक वह नहीं जाता। 'उसका' भान किस तरफ का है, उस पर आधारित है। 'उसका' भान यह है कि 'मैं चंदूभाई हूँ' या फिर 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा भान है? यानि कि यदि