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[२.६] वेदनीय कर्म
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है लेकिन उससे अशाता नहीं होती। मीठा, मीठा ही लगता है लेकिन शाता नहीं लगती। कड़वे को कड़वा जानता है और मीठे को मीठा जानता है बस! उसी को कहते हैं वेद।
प्रश्नकर्ता : हाँ, लेकिन वह तो, जब स्वरूप में लीनता हो जाए तब न? एकदम निरंतर उपयोग स्वरूप में रहे, तब होता है न? अब जब तक संपूर्ण सुख स्वभाव का आलंबन नहीं है, तब तक शाता-अशाता में थोड़ा बहुत भोगवटा रहेगा ही न?
दादाश्री : 'मैं शुद्धात्मा हूँ,' यह शब्दावलंबन है। तभी से 'उसे' प्रतीति, लक्ष (जागृति) और अनुभव की शुरुआत हो जाती है। और वहाँ से बढ़ते, बढ़ते, बढ़ते, बढ़ते, बढ़ते, बढ़ते संपूर्ण निरालंब होने तक जाता है। तब तक का जो आत्मानुभव है, उसमें फर्क नहीं है। वेदनीय का वेदन करने में फर्क है। उसके अनुभव में फर्क नहीं है।
_ 'मैं शुद्धात्मा ही हूँ,' यही है प्रतीति। लेकिन उससे वेदनीय में फर्क पड़ता है। जैसे-जैसे अंदर अवलंबन कम होते जाएँगे, निरालंब होता जाएगा न, तब फिर वेदनीय स्पर्श नहीं करेगा। जब तक अवलंबन है, तभी तक वेदनीय स्पर्श करता है!