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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
नहीं आता। फिर अगर आप तन्मयाकार नहीं होंगे तो वे डिस्चार्ज होकर खत्म हो जाएँगे। महावीर भगवान को ये अघाती कर्म केवलज्ञान के बाद में भी थे। ये चार घाती ही पूरी तरह से शुद्ध हुए थे। अघाती तो सारे थे ही न! अत: वेदनीय-नाम-गोत्र और आयुष्य, ये चारों अघाती कर्म कहलाते हैं। केवलज्ञान के बाद भी वे हर एक में रहते हैं। वे रहेंगे तो भी आत्मा को कोई नुकसान नहीं पहुँचाते।
प्रश्नकर्ता : तो इसका मतलब इन चार कर्मों को ही खपाना हैं?
दादाश्री : हाँ, बाकी के चार कर्मों का तो अपने आप निकाल हो ही जाएगा।
शाता वेदनीय आई, आराम से सो जाओ शांति से। अशाता वेदनीय आए तो फिर शोर-शराबा मत करना।
निकाल बाकी है अघाती कर्म का प्रश्नकर्ता : ये जो आयुष्य, वेदनीय, गोत्र और नामकर्म हैं, ये तो देह को स्पर्श किए हुए दिखाई देते हैं। ये सभी देह के साथ संबंधवाले दिखाई देते हैं। वे ज्ञानावरण, दर्शनावरण.....
दादाश्री : वे भी देह के साथ संबंधवाले ही हैं लेकिन चश्मे के रूप में हैं। बाकी उत्पन्न तो सभी द्रव्यकर्मों में से ही हुए हैं। अगर ये घाती चले जाएँ, तो अघाती से तो कोई परेशानी ही नहीं है। अघाती तो, जब तक यह देह है, तब तक रहेंगे, अतः अगर अपयश मिले तो उसमें हर्ज नहीं है। ज्ञानावरणीय गया? तो कहते हैं हाँ, गया! तब पूछे कि 'लोग अपयश देते हैं वह?' 'भले ही रहे।' जब तक देह है तब तक टिकेगा और यश भी जब तक देह है तभी तक टिकेगा। यश भी मिलेगा और अपयश भी मिलेगा।
प्रश्नकर्ता : देह के साथ जुड़ा हुआ जो ज्ञानावरण कर्म है, वह देह होने के बावजूद भी जा सकता है? ज्ञानावरण, दर्शनावरण?
दादाश्री : हाँ, वे तो साथ में ही रहते हैं। इसी में मिले हुए हैं ये