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[२.१०] घाती-अघाती कर्म
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दादाश्री : फिर आवरण बढ़ता जाता है।
प्रश्नकर्ता : ये जो चारों कर्म हैं, ये दर्शनावरण, ज्ञानावरण, मोहनीय और अंतराय, इनमें कोई लिंक होता है क्या? एक दूसरे के बीच कोई संबंध
दादाश्री : संबंध से ही है। ये सब एक ही हैं, लेकिन इसे तो लोगों को समझाने के लिए अलग बताया गया है।
प्रश्नकर्ता : ऐसा किस तरह से है यह? तो इनका संबंध किस प्रकार से है?
दादाश्री : यह सारा मोहनीय में ही है। आठों कर्म मोहनीय की वजह से ही बंधते हैं। सभी कुछ मोहनीय में, एक ही शब्द हो तो भी चलेगा।
प्रश्नकर्ता : इसका योग्य संबंध क्या होता है?
दादाश्री : सब से पहले मोहनीय आता है। मोहनीय में सबकुछ समा जाता है। यह सारा मोहनीय ही खड़ा हो गया है। मोहनीय अर्थात् सोने को सोने के रूप में नहीं देखकर, दूसरे प्रकार से देखना। मूल आत्मा को आत्मा के रूप में नहीं देखकर, अर्थात् जैसा है उसके बजाय उल्टा ही दिखाई देता है।
प्रश्नकर्ता : ये ज्ञानावरण-दर्शनावरण और वे चार कषाय, यों तो इनके बीच तो संबंध है न?
दादाश्री : वे तो यही कषाय हैं। ज़्यादा स्पष्टता के लिए समझाने के लिए नाम रखते हैं। बाकी क्या है? क्रोध-मान आदि सभी मोह के बच्चे हैं! इसीलिए हम दर्शनमोह को खत्म कर देते हैं, चारित्रमोह बचा है, बस।
प्रश्नकर्ता : उस दर्शनावरण-ज्ञानावरण से यह दर्शन गुण आवृत हो गया। ज्ञानगुण आवृत हो गया और अव्याबाध सुख आवृत हो गया। गुणों का आवृत हो जाना और आवरण, यह सब किस तरह से है?