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[२.११] भावकर्म
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दादाश्री : नहीं, नहीं, भाव को तो लोग समझते ही नहीं हैं। हमें अगर यह चीज़ भाती है, वह भाता है, तो उस सब को भाव नहीं कहते। भाव का तो किसी को पता ही नहीं चलता! भाव तो, वह सिर्फ शब्दों में ही खेलता रहता है, 'मुझे यह भाता है, मुझे वह भाता है,' अतः यह मेरा भाव है। वह भाव नहीं है। हाँ, वे सारे बीज उगने योग्य ज़रूर हैं कि जब तक 'मैं चंदूभाई हूँ,' ऐसा रहता है, तब तक उगते हैं वे और 'मैं शुद्धात्मा हूँ' तो नहीं उगते। बाकी वे भी भावकर्म नहीं हैं। वास्तव में तो ये सारे फल भावकर्म में से ही आए हुए हैं।
प्रश्नकर्ता : हम कई बार अच्छे भाव करते हैं। उनमें से कुछ भाव फलित होते हैं और कुछ भाव फलित नहीं होते तो इसका क्या कारण है? वह भी क्या अपना कोई भावकर्म होगा?
दादाश्री : नहीं, भावकर्म है ही नहीं यह। यह जो भाव होते हैं न, वह तो इच्छा है। भाव तो 'चार्ज' कहलाता है। वह तो होते ही नहीं है अब। यह ज्ञान देने के बाद बंद हो जाते हैं वे। भावकर्म नहीं है यह। यह हमें भाता है, तो इसे क्या भावकर्म कहेंगे? भाव शब्द का उपयोग होता है, बस इतना ही है।
प्रश्नकर्ता : दादा हममें जो भावना उत्पन्न होती है, वह कहाँ से होती
दादाश्री : किस चीज़ की भावना लेकिन? भावना दो तरह की होती है। एक जो हमें भाता हो, उसे भी भावना कहते हैं। यह भाता (भावे छे) है मुझे' ऐसा कहते हैं। यह इफेक्ट है और जो भाव उत्पन्न होता है, वह तो कर्म है, भावकर्म है। भावना भावकर्म का फल है। भावकर्म कॉज़ेज़ कहलाते हैं और यह भावना इफेक्ट है। यह भाता है और वह भाता है' वे सब इफेक्ट हैं। तुझे जो भाता है, वह खा भाई लेकिन बीज सेक देना।
प्रश्नकर्ता : तो क्या भावना और भावकर्म ये दोनों अलग हैं?
दादाश्री : हाँ, अज्ञान दशा में भावना भावकर्म में ही परिणामित होगी। अब लोग इच्छा को भावना में ले जाते हैं। 'मेरी यह जो इच्छा है,