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आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
अब वहाँ पर द्रव्यबंध की भाषा अलग है। उस भाषा में द्रव्यकर्म किसे कहते हैं, जो आँखों से दिखें ऐसी सब चीज़ों को, जो गुस्सा हो गया उसे भावबंध कहते हैं और किसी की मार खाई तो उसे द्रव्यबंध कहते हैं, लेकिन वास्तव में इस भावकर्म में से बने हुए द्रव्यकर्म किसे कहते हैं, जो आठ मूलभूत आठ कर्म हैं उन्हें द्रव्यकर्म कहा जाता है और इसे भावकर्म कहा जाता है और जो आँखों से देखे जा सकते हैं वे नोकर्म कहलाते हैं। नोकर्म को ये लोग द्रव्यकर्म कहते हैं। यदि इतनी ही समझ होती तो निकाल हो जाता।
__ वहाँ पर तो इन नोकर्मों को भी द्रव्यकर्म मानते हैं। भावकर्म को द्रव्यकर्म मानते हैं लेकिन असल में द्रव्यकर्म तो ये जो आठ कर्म हैं न, वे हैं। द्रव्यकर्म में से भावकर्म और भावकर्म में से वापस द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म में से वापस भावकर्म और भावकर्म में से वापस द्रव्यकर्म बस।
और इस नोकर्म की तो इतनी कुछ खास वैल्यू नहीं है। ये तो लटू घूमते हैं, वैसे घूमते हैं, उसमें क्या?
मात्र दृष्टि की ही भूल अब भावकर्म का मतलब क्या है? कोई बड़े सेठ हों, उनके द्रव्यकर्म बहुत बड़े हों, लोकपूज्य व्यक्ति हो, और हम उनसे कहें, 'सेठ जी पधारिए। पधारिए, पधारिए, पधारिए।' तब सेठ पधारते हैं। उसमें हर्ज नहीं है, लेकिन वे फूल जाते हैं, वह भावकर्म है और अगर अपमान करें तो ठंडे पड़ जाते हैं। वह भी भावकर्म है। अतः ये आठ प्रकार के द्रव्यकर्म हैं। इनमें से सभी भावकर्म उत्पन्न होते हैं। ये राग-द्वेष रूपी भाव या क्रोध-मान-माया-लोभ रूपी भाव, तो उन सेठ का क्या हुआ? मान और क्रोध उत्पन्न हुआ। 'आइए, पधारिए' कहा तो वह गर्व से फूल जाता है और अपमान से इन्फिरियारिटी कॉम्प्लेक्स हुआ, तो ये दोनों ही नुकसान करते हैं।
जब उच्च गोत्र का फल आता है तब एलिवेशन होता है और नीच गोत्र का फल आता है तब डिप्रेशन होता है। उससे क्रोध-मान-माया-लोभ और राग-द्वेष होते रहते हैं। इसलिए वे आश्रव (कर्म के उदय की शुरुआत)