________________
[२.१२] द्रव्यकर्म + भावकर्म
२९१
पुद्गल में। पुद्गल पावरवाला, पावर चेतन हो गया। अब ज्ञान लेने के बाद नया नहीं भरता है और जो पुराना है, वह डिस्चार्ज होता रहता है।
कल्पना के अनुसार बना पुद्गल भावकर्म अर्थात् कषाय की वजह से स्वभाव धर्म चूक जाना। उस कषाय की वजह से खुद का निजभाव चूक जाता है, और फिर परभाव उत्पन्न होता है। वह परभाव भावकर्म कहलाता है। लेकिन कल्पना 'खुद' की ही है, इसलिए कृपालुदेव कहते हैं कि 'चेतन रूप' है।
'जड़धूप' अर्थात् परमाणुओं को खींचता है। गुस्सा हो जाए, भावकर्म हुआ कि परमाणु खींच लिए और खास तौर पर बाहर के परमाण प्रविष्ट नहीं होते। देखने जाएँ तो बाहर के परमाणु तो स्थूलरूप से हैं, बाकी अंदर के ही निज आकाश में खींचता है। उसके अंदर सभी तरह के परमाणु हैं। बाकी सूक्ष्म तो अंदर ही हैं, तैयार ही हैं। सूक्ष्म परमाणुओं के हिसाब से बाहर के मिल जाते हैं। स्थूल भी चाहिए न?!
और 'खुद' ने कल्पना की, यानी कि यहाँ पर जो कल्पना की उसे डिज़ाइन कहते हैं और डिज़ाइन का फोटो पड़ता है, तो पुद्गल वैसा ही हो जाता है। जैसी कल्पना हम यहाँ पर करते हैं, वह पुद्गल वैसा ही बन जाता है। अतः यह पुद्गल हमें बनाना नहीं पड़ा है, अपनी कल्पना अनुसार ही बन गया है। भावकर्म की कल्पना के अनुसार ही पुद्गल बन गया है, आँख वगैरह सभी कुछ। अर्थात् 'जीव वीर्य की स्फुरणा ग्रहण करे जड़धूप।' इसका मतलब कि ये परमाणुओं को खींचता है और ग्रहण करता है। स्फुरणा हुई कि तुरंत ही खींचता है। जैसे भाव हैं, जैसी स्फुरणा हुई उस प्रकार के पुद्गल को खींचता है और यह उत्पन्न हो गया है। नहीं तो भैंस किसने बनाई? तो कहते हैं, 'इसने खुद ने ही बनाई और फिर अंदर घुस गया।' हाथी किसने बनाया? तो कहते हैं, 'इसी ने बनाया।' वैसा कोई जान-बूझकर नहीं बनाता, कषाय से बनाता है। कषाय अर्थात् वहाँ पर खुद का कुछ भी नहीं चलता, परभाव है! जो जबरन करना ही पड़े, वह परभाव। तभी स्वभाव खत्म हो जाता है, नहीं तो कोई गधा बनता होगा? किसी को