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[२.११] भावकर्म
द्रव्यकर्म की वजह से होते हैं भावकर्म प्रश्नकर्ता : अब भावकर्म के बारे में विस्तारपूर्वक समझाइए।
दादाश्री : यदि भावकर्म को समझना हो संक्षेप में, शुरुआत समझनी हो तो 'मैं चंदूभाई हूँ,' वही सब से पहला भावकर्म है। फिर उससे आगे तो बहुत सारे हैं। उसने ज्ञानावरण और दर्शनावरण की जो पट्टियाँ बाँधी हैं, उस वजह से जो है वह दिखाई नहीं देता। इसलिए, 'मैं चंदूभाई हूँ,' ऐसा कहता है यह। अतः यह पहला भावकर्म है।
क्योंकि चश्मे बदल गए हैं, इसलिए 'उसे' ऐसे भाव उत्पन्न होते हैं कि यह मेरा दुश्मन है और यह मेरा मित्र है, वह भावकर्म है। भाव के आधार पर चश्मे नहीं हैं, चश्मे के आधार पर अभी भाव हो रहे हैं और वे भाव हो रहे हैं, इसलिए फिर से नए चश्मे बन जाते हैं, अगले जन्म के लिए द्रव्यकर्म।
भावकर्म का मूल अर्थ ऐसा है कि उससे भाव और अभाव होते हैं, इस कारण से जगत् के लोगों को कर्म बंधन होता है। भाव होते हैं और अभाव होते हैं। भाव अर्थात् राग और अभाव अर्थात् द्वेष। अभाव अर्थात् क्रोध व मान और भाव अर्थात् लोभ व कपट। इन भाव-अभाव के आधार पर भावकर्म का बंधन होता है।
प्रश्नकर्ता : यानी लाइक और डिसलाइक के आधार पर?
दादाश्री : लाइक और डिसलाइक तो बाद में आता है। इसे भावअभाव कब तक कहते हैं? अहंकार सहित हो, तब तक। और अंहकार