________________
२६४
आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध)
प्रश्नकर्ता : इस उम्र के बाद अब शक्ति घटती ही जानी चाहिए इसलिए सभी को आश्चर्य होता है कि दादा अठहत्तर साल की उम्र में भी इतना अच्छा काम कर सकते हैं, इतना अधिक घूम सकते हैं, ऐसा। इसके पीछे देवी-देवताओं की शक्ति नहीं है?
दादाश्री : कृपा तो है ही न! वह भी उदयकर्म के अधीन है। यह निमित्त पहले से ही सेट है, नया नहीं है। यशनाम कर्म, बाकी के सभी कर्मों के फल स्वरूप है। नामकर्म तो बहुत बड़ा, अच्छा। लोकपूज्य गोत्र वगैरह बहुत उच्च हैं। आयुष्य अठहत्तर साल का हो जाए अर्थात् बहुत उच्च है।
प्रश्नकर्ता : हज़ारों लोग याद किया करते हैं, ख्याति फैलती है। यही नामकर्म है न?
दादाश्री : नामकर्म, ऐसे ख्याति फैलना, वह नामकर्म नहीं है। ख्याति फैलना तो आज के कर्म का फल है। और नामकर्म जो फल देता है वह अलग प्रकार का है, यानी कि जहाँ जाए वहाँ पर मान-तान सभी कुछ मिलता है।
___ अतः काम इन 'दादा भगवान' का है और यशफल मुझे मिलता रहता है। 'इन्हें' यश चाहिए नहीं और यशनाम कर्म तो 'मेरा' है न!
प्रश्नकर्ता : ‘दादा भगवान' को तो कैसा यश? वे तो निर्लेप हैं न!
दादाश्री : 'उन्हें' ये आठों कर्म हैं ही नहीं। ये सारे आठ कर्म मेरे हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, नाम, गोत्र, वेदनीय और आयुष्य। ये आठों कर्म मेरे हैं।
प्रश्नकर्ता : वे 'मेरे' यानी किसके? दादाश्री : 'ज्ञानीपुरुष' के ही न!
ऐसे हिसाब लगाने जाएँ तो कहते हैं 'ज्ञानावरण?' नहीं, वह थोड़ा सा ही है, चार-चार डिग्री जितना ही। दर्शनावरण ज़रा सा भी नहीं, मोहनीय बिल्कुल नहीं, अंतराय नहीं किसी भी प्रकार के। अंतराय का मतलब क्या है कि खुद की इच्छा अनुसार चीज़ प्राप्त नहीं होना।